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नेसे पाप लगता है, देखो नीचेका श्लोक
" क्षात्रधर्मे स्थितो जन्तून् समाहितस्तत्तपसा, जाघं
न्यवधोर्मृगयादिभिः । मदुपाश्रितः ॥ ६४ ॥
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भावार्थ - क्षात्रधर्म में रहे हुए तूंने शिकारसे अनेक जीका वध किया है इस लिये मेरा आश्रय लेकर समाधिस्थ होकर तपश्चर्या द्वारा उस पापका नाश कर ॥ ६४ ॥
भागवत दशम स्कंध पूर्वार्द्ध अध्याय २२ पत्र ८९-९० बे में लिखा है कि
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कृष्णमुच्चैर्जगुर्यान्त्यः, कालिन्द्यां स्नातुमन्वहम् । नद्यां कदाचिदागत्य, तीरे निक्षिप्य पूर्ववत् ॥ ७ ॥
भावार्थ - उच्च स्वरसे अपने प्राणप्यारे यशोदानंदका नाम लेती और गुणानुवाद गाती यमुना पर स्नान करने को जाया करती ॥ ७ ॥
" वासांसि कृष्णं गायन्त्यो, विजहुः सलिले मुदा । भगवांस्तदमिप्रेत्य, कृष्णो योगीश्वरेश्वरः ॥ ८ ॥ "
भावार्थ - एक दिन पहले के न्याई यमुनाके किनारे पर अपने अपने वस्त्र उतार कर सबने घर दिये और श्रीकृष्णचन्द्रके गुण गान करके यमुना जलमें विहार करने लगीं, तब योगीश्वरोंके ईश्वर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र उनके मनका मनोरथ जानकर || ८ ॥
१ यहपाठ इस लिये लिखा गया है कि अगर कोई कहे कि कृष्णजीने शीकार किया इसमें कुछ हरकत नहीं क्योंकि वे राजा थे और राभ्यधर्ममें शीकार में पाप नहीं होता तो उनको यह पाठ याद रखना चाहिये.
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