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( १०२) चतुर्थ-दिवस.
चौथे दिन सूरीश्वरजी महाराजने प्राभातिक कृत्योंसे
निवृत्त हो कर जब अपने स्थानको सुशोभित किया तब वह श्रद्धाशील श्रावक महाशय भी आ पहुंचा, विधि सहित वंदन करनेके बाद हाथ जोड सन्मुख बैठ गया और कहने लगा कि पूज्यपाद गुरुदेव ! आपने जैसी आगे इस दास पर कृपा की है ऐसे आज भो करें और आगेका वर्णन सुनावें.
सूरीश्वरजी-पद्मपुराण प्रथम सृष्टिखंड अध्याय १७ वे के ५० वे पत्र पर जिकर है कि
ब्रह्माजीने दूसरी स्त्री कर ली, जिससे प्रथमकी स्त्री सावित्री क्रुद्ध हुई, ब्रह्माजीने उसके चरणों में शिर धरा इत्यादि, देखो" पत्नी विना न होमोऽत्र, शीघ्र पत्नीमिहानय । शणैषा समानीता, दत्तेयं मम विष्णुना ॥ ४२ ॥ गृहीता च मया सुच!, क्षमस्वैतं मया कृतम् । न चापराधं भूयोऽन्यं, करिष्ये तव सुव्रते ! ॥ ४३ ॥ पादयोः पतितस्तेऽहं, क्षमस्वेह नमोऽस्तु ते । एवमुक्ता तदा कुद्धा, ब्रह्माणं शप्तुमुद्यता ॥ १४ ॥"
भावार्थ-स्त्रीके वगैर यहां होम नहीं हो सकता तब मैने ग्रहण की, हे अच्छी भ्रवाली !, हे अच्छे व्रतवाली ! मेरे अपराधकी क्षमा कर फिर ऐसा नहीं करूंगा ॥४३॥ हे देवि ! तेरेको नमस्कार हो, मैं तेरे चरणोंमें पडा हूं, क्षमा कर,
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