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विधान है, इन बातोंसे दयाका अभाव आर हिंसाका भाव बतलाता हुआ यह विधान इन शास्त्रोंको कुशास्त्ररूप साबित करता है, अरे ! पुराणों को छोड दो, वेदोंमें भी कहां कमी रक्खी है, देखो - शंकर दिग्विजय के २६ वे प्रकरणमें आनंदगिरि लिखता है कि
श्रुत्याचारतत्परैरंगीकरणीया,
" पशुहिंसा हिंसा कर्त्तव्येत्यत्र वेदाः सहस्रं प्रमाणं वर्त्तने, ब्रह्म-क्षत्र - वैश्य - शूद्राणां वेदेतिहासपुराणाचारः प्रमाणमेव, तदन्यः पतितो नरकगामी चेति अनिष्टोमादिक्रतुः छागादि पशुमान् यागस्य धर्मत्वात् सर्वदेवतृप्तिमूलकत्वाच्च तद्द्वारा स्वर्गादिफलदर्शनत्वाच्च ."
इस उपरके पाठ में लिखा है कि हजारों श्रुतिएं हिंसा करनेका आदेश करती हैं, इस लिये वैदिकहिंसा कर्त्तव्य है, इस लिये वेदकी भी हजारो श्रुतिएं हिंसामयी पुराण के लेखको सिद्ध करती हैं ऐसा साबित हुआ, अब बुद्धिमानों को विचार करना चाहिये कि जहां पर मूल ग्रंथ उत्तरग्रंथ सभी में ऐसी क्रूर बातें लिखी हों उन ग्रंथों पर चलनेवालों का भला कैसे हो सके ?. अगर कोई कहे कि उन बातोंके उल्लेखवाले पाठोंको छोड कर अच्छो बातें जिन पाठोंमें लिखी हों उन पाठको ठीक माने फिर तो कल्याण हो सकता है, १ तो यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि विषमिश्रित अन्नको पृथक् कर भक्षण करनेवालेको जैसा उसका पृथक्करण दुर्घट मालूम होता है और भक्षणसे मरणका अनुभव करना पडता है, ऐसे ही मिथ्यामोहितोंके रचे हुए शास्त्रोंके विषयमें भी समझ लेना चाहिये.
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