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णाको देखते हुए भी लीला लीला कह कर आंखें मीच लेते हैं और सत्यमार्गको भूल कर उलटे ही रास्ते चले जाते हैं. और भ्रमणाकी ठोकरें खाते हुए अनंतकाल व्यतीत करते हैं, मगर सत्य जैनधर्मरूप सूर्यके प्रकाशसे प्रकाशित मार्गमें नहीं आने से मुक्ति से वंचित रह जाते हैं.
उन जीवों पर हमारी अहोनिश भाव दया रहा करती है और यह विचार आता है कि हाय ! दुष्ट मिध्यात्व ! तूंने उन जीवोंका नाश क्यों मारा है १, इन्होने तेरा क्या त्रिगाडा है १. जो विचारोंको रास्ते पर नहीं आने देता, इससे भी ज्यादा दुःख तो हम इस बातका है कि जो उल्टे रास्ते पर चलते हुए भी सच्चे जैनधर्मसे द्वेष रखते हुए और अपने हृदयगत प्रज्वलित वैरको शांत करने के लिये किसी पुस्तकमें ज्युं आवे त्युं जैनधर्म के बारेमें बकवाद करते हैं, जैसे ' अनंगभद्रा ' अथवा वल्लभीपुरनो विनाश ! ' नामके पुस्तकमें एक मिथ्यांध ठक्कर नारायण विसनजी " नामक व्यक्तिने किया है, मचकुर किताब के पृष्ठ ४० पर लिखा है कि- “ घएगा परा ઘણા જૈન સાધુએ પણ એ તાંત્રિક ધર્મના ઉપાસક થયા ता. " यह फिकरा लिखकर उसकी फुटनोटमें—
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“ જ્યારથી બહુ સખ્ય જૈન સાધુઓએ તાંત્રિકક્રિયાને સ્વિ કારી તે મલીન જપાપ તથા માંસ બલિદાન આદિથી દેવી પિશાચ તથા વૈતાલ આદિની, જારણુ મારણ અને વશીકરણુ આદિ સિદ્ધિ માટે સાધના मुश्या भांडी.. એટલે પછી જે સાધુશ્મા શુદ્ઘરિત્ર અને પવિત્ર હતા. તેમણે એ ભ્રષ્ટ જેનસાથી પેાતાની ભિન્નતાને દર્શાવવા भाटे श्वेतवस्त्रने पहले पीतवस्त्र परिधान श्वा भांडयां, ............
બૈધ પ્રમાણેજ જૈનધર્મમાં પણ તે સમયમાં ભિન્ન ભિન્ન અનેક વિભાગે પડી ગયા હતાં, તેમાંના દિગમ્બર શ્વેતાંબર અને સ્થાન કવાસી
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मुन्य हता.
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