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(९३) देह है इसको पीडा मत दे, हे समर्थ ! जो तुम्हारा अभिप्राय हमारे आगे सुनाने योग्य हो तो कहो, क्यों कि बहुधा दूसरोंकी सहायतासे पुरुष अपना कार्य सिद्ध कर सकते हैं, ऐसे मिष्ट वचनसे वृकासुरने अपना सर्व वृत्तांत सुना दिया, तब श्रीभगवान् बोले कि शिवने तुमको वर दिया है तो शिवके वचनको हम सत्य नहीं मानते, क्यों कि यह शिव दक्षके श्रापसे पिशाचोंकी दशाको प्राप्त हुआ है और प्रेत पिशाचोंका राजा है, इत्यादि कह कर उसका हाथ उसके मस्तक पर घराया वो मर गया. __ इस उपरके बयानसे सिद्ध होता है कि महादेवजीको इतना भी ज्ञान नहीं था कि मैं इस कासुरको ऐसा वरदान देता हूं कि जिस वरदानसे मेरा ही नाश करनको यह वृकासुर उद्यत होगा जिससे मेरेको नाश भाग करनी पडेगो तो फिर ऐसे ज्ञानहीनको देव कैसे कह सकते हैं ? तथा विष्णुने उस वृकासुरको धोखा देके मरवाया यह भी सजनताका लक्षण नहीं, क्योंकि सज्जन किसीके साथ धोखेका काम भी नहीं करते तो फिर मरवाणा तो कहां रहा?, इस लिये विष्णु भी धोखेबाज तथा निर्दयी सिद्ध होते हैं.
भागवत तृतीय स्कंध पत्र ३८ वा में बयान है कि. चतुराननने जलमें धरणी-पृथ्वीको डुबी देखके मनमें बहुत काल तक चिंतन किया कि किस प्रकारसे इसका उद्धार किया जाय, ज्यु प्रजा गण इस उपर वास करें. " यस्याहं हृदयादासं, स ईशो विदधातु मे। इत्यभिध्यायतो नामा--विवरात् सहसानघ! ॥
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