________________
(६२) जैन दर्शनकी ऐसी निंदा लिखी हुइ है किजिसको सुन कर भद्रिक लोक ऐसा मानने लगते हैं कि जैन दर्शन. तो हमोर में नुक्स दिखलानेके लिये ही है, हमारा द्वेषी है, बस ऐसी वासनासे अबलतो वे लोग संबंध हो कम रखते हैं, अगर कभी संबंध होगया और किसी समझदार जैनने मत विषयमें कहा तो मानने लगते हैं कि ये द्वेषसे कहते हैं, अथवा पौराणिक कल्पनासे दैत्योंको शुक्राचार्यके कथनसे विरूद्ध करनेके लिये यह मत चलाया गया जिससे आदरणीय नहीं है, इत्यादि मन गढंत विचारसे " ऐसा मानने लगते हैं कि वेदके हिंसा कर्मका विचार " यूपं कृत्वा " और श्राद्ध पितर कैसे तृप्त हो सकते है, इत्यादि बातें हमारे पुराण दैत्योंको दुर्गतिमें लेजानेके लिये दिखाइ है, अतः हम नहीं मानेंगे मगर ऐसा नहीं मानते हैं कि ब्राह्मग लोगोंने अपने हिंसक कर्म तथा उदर पोषण निमित्त चलाये हुए श्राद्ध, दान लेनकी बुद्धिसे कल्पे हुए यज्ञ जैनों की दलीलोंसे झूठे सिद्ध होते हैं इस लिये " अपने ढकोंस ले चलानेके लिये शुक्राचा. योदि की यह झूठी कल्पना की है जैसे वह गोपाल, लोगोंको द्वेषी समझता रहा मगर सोनारको धूर्तताको नहीं समझा, बस ऐसाही हाल भद्रिक लोकोंका हो रहा है, जैसे गोपाल प्रथम सोनीके हाथमें आया उसी वख्त उसने उस्के कानमें अपनी फूंक मारली पिछेसे लोगोंने चाहे इतना कहा किसीकी नहीं मानी ऐसे ही मिथ्यामत पोषक प्रथमसे ही अपने अनुयायोयोंके कानमें फुक ऐसी खूबीसें मारते हैं कि जनमभर विचारे सच्चे धर्मको हाँसिल ही न कर सकें, हाँ किसीका पूर्ण पुण्योदय होवे और समझ जायतो बात जुदी है, नहीं तो वहां तक
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com