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(६७) उपरके श्लोकोंमें पुराणादिकोंकी कथा वांचनेसे तथा करानेसे इतना बड़ा भारी फल लिखा है सो भी हमारी समज मूजिब तो पुराण वांचनेवालोंने स्वार्थका ही पोषण किया है, कारण कि पुराणादिककी कथा वंचावनेसे तथा सुनने सुनानेसे ऐसा बडा भारी फल मिलता है ऐसा सुनके भोले लोग हमारेसे पुराणादिक बंचवावेंगे और सुनेंगे तो हमारा सुखसे निर्वाह चलेगा.
शिवपुराण धर्मसंहिता अध्याय २३ वा में एक मनुष्यका वर्णन है कि वह एक पुराण वांचनेवाले के पास धर्म सुनने गया सुन कर उसमें परम श्रद्धा और भक्ति उत्पम हुई, उसने वांचक महात्माको प्रदक्षिणा दे करके एक मासा सुवर्ण वितीर्ण किया, रस पात्र के दानसे विमानमें बैठ कर धर्मराजकी सभामें गया, धर्मराजने पूजन किया और वो शख्स ब्रह्मपदको प्राप्त हुआ, फिर धर्मराजने देवर्षि सनत्कुमारसे कहा जो श्रद्धा और भक्तिके साथ वाचककी यानि पुराण वांचनेवालेकी पूजा करता है उसने ब्रह्मा विष्णु शंकर और मेरा पूजन किया ऐसे जानना ॥ ४ ॥ जो उत्तम भक्ष्य भोजनसे पुराणादि वांचनेवालेको पूजता है तो श्रादमें यह करनेसे मैं पंद्रह वर्ष तक पूंजित हो जाता हूं ॥ ४५ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! शिवपुराणादि वांचनेवालोंका सत्कार भोजन करनेसे दोसौ वर्ष तक मेरी तृप्ति हो जाती है ॥ ४६ ॥ पुराणादि वांचनेवालेको भोजन करानेमें केवल मेरी ही भीति नहीं होती है परन्तु संपूर्ण देवता और इन्द्रादिकोंकी प्रीति हो जाती है ॥ ४७ ॥ हे मुने! कथा कहनेवाला ब्रह्मा विष्णु
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