Book Title: Mandir
Author(s): Amitsagar
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 8
________________ मन्दिर संस्कार से संस्कृति (११) जीवादि तत्त्व प्रतिपादकाय, सम्यक्त्व - मुख्याष्ट- गुणार्णवाय । प्रशान्त रूपाय दिगम्बराय, देवाधिदेवाय नमी जिनाय ।। संस्कार से संस्कृति जय बोलो देवाधिदेव श्री पार्श्वनाथ भगवान की शारदे ! शरद सी शीतल....... जय बोलो श्री द्वादशांग जिनवाणी माता की ...... जय बोलो गुरुवर्य आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज की....... जय बोलो किमयी की..... जीवन में कभी-कभी सरल से सरल, छोटी-सी-छोटी बातें बहुत कठिन हो जाती हैं समझने के लिये, क्योंकि हम समझते हैं कि ये बातें सरल हैं। सरल हैं इसलिए हमारे मन में उन सरलसी बातों में आकर्षण लगाव या दिलचस्पी नहीं होती है। खास करके रोज-रोज मन्दिर जी जाने जैसी प्रक्रिया पर | हमारे विद्वान-साधु आचार्य जी भी कम बोलते हैं इस प्रक्रिया पर क्योंकि वे समझते हैं कि सब समझदार हैं, मन्दिर जी जाते हैं। इस विषय पर क्या बोलें? हाँ, बोलेंगे भी तो ऐसा कि मन्दिर जी आना चाहिये । बिना मंदिर जी आये तो आप जैन ही नहीं हो सकते । मन्दिर जी आने से आपके स्वर्ग की सीट सुनिश्चित है। बस ऐसी कुछ रटी-रटाई सी बातें हम बहुत दिनों से सुनते आ रहे हैं और आगे भी इसी तरह कुछ हेर-फेर करके सुनते चले जायेंगे । क्या इतना ही सुनना है? नहीं, अब हमें अपने जीवन में मन्दिर जी आने का क्या महत्त्व है? मन्दिर क्या है, मन्दिर में कौन हैं, कैसे हैं, क्यों हैं आवश्यक ? आदि-आदि इन्हीं प्रश्नों को समझना है हमें वैज्ञानिक मनोवैज्ञानिक, सामाजिक-धार्मिक- आगमिक तौर-तरीकों से संस्कारों को सुरक्षित रखने की पद्धति संस्कृति कहलाती हैं। संस्कृति वही जीवन्त है जिसके संस्कार सुरक्षित आधरित है। हमारे जीवन के संस्कारों का प्रथम आदि मंगलाचरण मन्दिर है। क्योंकि जब बलक / बालिका को जन्म के चालीस पैंतालिस दिनों के बाद माँ के साथ मन्दिर जी लाया जाता है, तब श्री जिनदर्शन कराकर णमोकार महामंत्र बालक/बालिका के कानों में सुनाया जाता है । इसी के साथ ही उन्हें मन (शराब), मांस (गोस्त), मधु (शहद) एवं पंच- उदम्बर (बड़, पीपल, पाकर, गूलर, कठूमर) का त्याग कराकर अष्ट मूलगुण धारण कराये जाते हैं। इस कार्य को गृहस्थाचार्य (पण्डित), विद्वान, त्यागी एवं मुनि-आचार्य या कोई समझदार बुजुर्ग पुरुष या महिला

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