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मन्दिर
स्वाध्याय
यदीया धाग्गंगा विविध-नय-कल्लोल-विमला । वृहज्ज्ञानांभोभि-जगति जनतां या स्नपयति ।। इदानी-मप्येषा बुधजन-मरालैः परिचिता। महावीर स्वामी नयन-पथगामी भवतु मे ।। जय बोलो श्री १००८ महावीर भगवान की.....
__ शारदे! शरद-सी शीतल.......
जय बोलो श्री द्वादशांग जिनवाणी माता की.... जय शोलो परम पूज्य गुरुवर्य आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज की....
जय बोलो अहिंसामयी विश्व धर्म की....., हम अभी मन्दिर में खड़े हैं। पिछले दिनों से हम मन्दिर में खड़े हैं और मन्दिर के सौन्दर्य का, मन्दिर में आने के प्रयोजन का महत्त्व समझ रहे हैं। कल आपको भगवान के सामने खड़ा करके और भगवान, ईश्वर, प्रभु की प्रति-कृति में जिनबिम्व में क्या-क्या विशेषतायें हैं? बतलायी थीं। आज भी आप अपने मानस को वहाँ खड़ा कर लें। जिनबिम्ब के सामने अभी आप खड़े हुये हैं और घंटा करें । सयोग जि.नाव को अपने अन्ततः स्ना में विराजमान करने की । अब आप
"निरखो अंग-अंग जिनवर के।" अंग-अंग निरखो, नीचे से ऊपर तक, ऊपर से नीचे तक बार-यार देखो, उनकी सम्पूर्णता को अपनी हृदय भूमिका में अवतरित करने का प्रयास करो। जब आपकी अपनी आँखों में जिनेन्द्र भगवान का जिनबिम्ब सम्पूर्ण रूप से समा जायेगा, व्यवस्थित हो जायेगा, आपके मन को छू जायेगा तो प्रकाश ही प्रकाश हो जायेगा। हमारे अन्तरंग का प्रकाश जाग्रत हो जायेगा।
आप भगवान के नखों को देखिये । उन नखों से कान्ति निकल रही है | ऐसी अपनी कल्पना कीजिए और वह कान्ति हमारे अन्तःस्थल में जा रही है। आँखों के माध्यम से परावर्तित हो रही है क्योंकि भगवान के नखों में कान्ति है। जिनके जीवन में कान्ति है उनके जीवन में शान्ति है। आपके जीवन में कोई कान्ति नहीं है। इसलिये आपके जीवन में शान्ति नहीं है। भक्तामर काव्य के प्रथम स्तोत्र में मानतुंग आचार्य देव यही बात कहते हैं कि भक्त देवों के झुके हुए मुकुटों की मणियों की कान्ति को उद्योदित, प्रकाशित आपर्क चरण कमल कर रहे हैं । आपके चरणों में इतनी कान्ति है कि मुकुटों की मणियाँ अपने आप झिलमिल-झिलमिल होने लगती है। वैसे ही हमारे अन्तःस्थल में प्रभु के पादाम्बुजों की प्रभा आविर्भूत हो जाए तो अलौकिक आनन्द उद्भूत हो जायेंगे।