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मन्दिर
सत्संगति क्यों? इसलिये वह अपने खेत की पाल पर लेट गया । मित्र आया, उसने देखा कि हमारा मित्र सो रहा है । लेकिन बगल में एक सुन्दर-सी ककड़ी खिल रही है। उसका मन हुआ कि अपने मित्र को जगाये/उठाये । लेकिन वह किसी कारण से आगे बढ़ गया कि मेरे मित्र के मन में जरूर कुछ न कुछ गड़बड़ हो गया है आदर-सत्कार नहीं करना चाहता है । तुलसीदास जी क्या कहते
"आवत ही हरष नहीं, नैनन नहीं स्नेह ।
तुलसी तहाँ न जाइये, कंचन बरस मेह ||" कितनी ही प्रेम-प्रीति हो, भाव बता देते हैं | पदार्थ और संसार की और वस्तुएँ, खानेपीने का मामला अलग है । लेकिन प्रेम और प्रीति केवल भावों से ही जुड़ी होती हैं | उसके मन में कुछ गड़बड़ हो गयी और वह आगे बढ़ गया । थोड़ी देर बाद वह मित्र उठा । उसनं देखा कि वह ककड़ी वहीं पर लगी हुई है। मित्र आकर के चला गया है। बड़ी विचित्र स्थिति बनी उसके मन की | हमारा मित्र बुरा मान गया, मात्र एक ककड़ी के कारण हम दोनों के आपस का प्रेम टूट गया। ____ उसने उठकर लाठी से उस ककड़ी को पीटना शुरू कर दिया कि तेरे कारण मेरी वर्षों की पुरानी मित्रता टूट गयी । तू है कि कितने दिन की? तुझे कोई न कोई खा ही लेगा। लेकिन तर कारण जो मेरी मित्रता थी, वह खटायी में पड़ गयी और उसको लाठियों से पोटने लगा | आवाज आ रही है, ककड़ी को पीट रहा है | लौटकर आ गया मित्र | थिना युताय आगया और कहने लगा, क्या हो गया भाई? इस ककड़ी ने हम दोनों के बीच एक दरार डाल दी, मित्र ने
कहा।
___ तो इस संसार की, विषय-कषायों की वस्तुएँ हम लोगों को धर्म से दूर ले जाती हैं, व्यावहारिक जीवन में दरार डाल देती हैं, सामंजस्य नहीं होने देती हैं । जिन-जिन पदार्थों से हमारे जीवन में आकुलता-व्याकुलता का प्रादुर्भाव हो, उन-उन पदार्थों की अपेक्षाओं का परित्याग कर दें। अपने आप एक समत्व का साक्षात्कार अपने जीवन में हो जायेगा। तो माला फेरने का मन से उपक्रम करो, करने की चेष्टा करो । उसके बाद हम तीसरी प्रणाली पर आने हैं।
सत्सगात क्या
गुरु-दर्शन, यह बहुत कम लोगों ही पाते हैं। किसी-किसी का अपना अपना भाग्य होता है । सत्संगति, गुरु दर्शन यह सब एक ही नाम है । संसार में दो बातें बड़ी दुर्लभ हैं । तुलसी दास जी कहते हैं