________________
मन्दिर
(८०)
आगम-सिद्धान्त
तीहि कारणेहि पढ़म-सम्मत्तमुप्पवेंति केई जाइस्सरा
केई सोदूण केई जिणबिंब दळूण 1।१०।। तीन कारणों से प्रथम सम्यक्त्व उत्पत्र होता है। कितने ही जाति स्मरण से, | कितने धर्मोपदेश सुनकर और कितने ही “जिनबिम्ब" के दर्शन करके । | जिनेन्द्र भगवान के दर्शन मात्र से ऐसे-ऐसे कर्मों का नाश होता है जिन कर्मों को अनेक तपों के द्वारा नष्ट नहीं किया जा सकता ऐसे "निधत्ति-निकाचित" नाम के वज्र से अधिक कठोर कर्म भी गलकर नष्ट हो जाते हैं ऐसा सिद्धान्त-आगम में कहा है।
| जिणबिंब दंसणेण णिधर्तणिकाचिदस्य । विमिच्छत्तदि कम्म कलावस्स खय दंसणादो।।
... "धवल ग्रन्थ" "सारंभई पहबणाइयह, जे सावज्ज भवति। दसणु तेहिं विणासियउ हत्यु ण कायउ भंति"
__ सावय धम्मदोहा २०११ जो अभिषेकादि से समारम्भों को सावद्य-दोषपूर्ण कहते हैं उन्होंने सम्यदर्शन का नाश कर दिया, इसमें कोई भ्रांति नहीं ।
जो जीव जिनेन्द्र भगवान के दर्शन नहीं करते उनके लिये पद्मनंदी आचार्य ने "पद्मनन्दि पञ्चविंशति” ग्रन्थ में कहा है कि
जिनेन्द्रं न पश्यति ये पूजयन्ति स्तुन्ति न | | निष्फलं जीवितं तेषां तेषां धिक् च गृहाश्रमम् ।।६/१५।।
जो जीव भक्ति से जिनेन्द्र भगवान का न दर्शन करते हैं, न पूजन करते हैं, न स्तुति ही करते हैं उनका जीवन निष्फल है उनके गृहस्थाश्रम को धिक्कार है।
तपस्वि गुरु चैत्यानां पूजालोप प्रवर्तनम् । अनाथ दीनकृपणाभिर्भिक्षादि प्रतिषेधनम् ।।
७ तत्वाधंसार ४/५५ तपस्वी, गुरु और प्रतिमाओं की पूजा न करने की प्रवृत्ति चलना, अनाथ, दीन तथा कृपण मनुष्यों को भिक्षा आदि देने का निषेध करना ये सब अन्तराय कर्म, पाप आस्रव के निमित्त है।