Book Title: Mandir
Author(s): Amitsagar
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 76
________________ मन्दिर (५९) आगम-सिद्धान्त आगम-सिद्धान्त "जिन प्रतिमा के दर्शन से लाभः" गरापाहारिणी मुद्रा गरुडस्य यथा तथा। जिनस्याऽप्येनसो हंत्री दुरिताराति पातिनः ।। जिस प्रकार गरुड़ मुद्रा (दर्शन मात्र से) सर्प-विष को नष्ट करने में समर्थ है उसी प्रकार जिन- मुद्रा पापों को नष्ट करने में पूर्णतः समर्थ है। | विघ्ना प्रणश्यन्ति भयं न जातु, न दुष्ट देवा परिलंघयन्ति।। अर्थान्यथेष्टाश्च सदा लभन्ते जिनोत्त-मानां परिकीर्तनेन ।। "छक्खण्डागम जीवट्ठाणं" | जिनेन्द्र देव के गुणों का कीर्तन करने से विघ्न नाश को प्राप्त होते हैं कभी भी भय नहीं होता, दुष्ट देवता आक्रमण नहीं कर सकते हैं और निरन्तर यथेष्ट पदार्थों की प्राप्ति होती है। सुह-सुद्धपरिणामेहिं कम्मक्खाभावेशुभ और शुद्ध दोनों प्रकार के भाव कर्मक्षय के हेतु हैं । यदि ऐसा नहीं माना जायेगा तो कर्मों का क्षय नहीं बन सकेगा | शुद्धोपयोगी की तरह शुभोपयोग वालों को भी धर्म परिणत आत्मा के रूप में स्वीकार किया है, अमृतचन्द्राचार्य ने भी | यदा तु धर्म परिणतस्वभावेऽपि शुभोपयोग परिणत्या संगच्छते ।। इस पंक्ति में शुभोपयोग रूप परिणति को भी धर्म में ही सम्मिलित किया है। अशुभोपयोग की तरह उसे अधर्म नहीं कहा। सम्यग्दृष्टि के अनुराग तो धर्मात्मा पुरुषनि में धर्म की कथा में आयतन होय है। -पण्डित सदासुखदास।।५७/1 जिनबिम्ब दर्शन सम्यक्त्व की प्राप्ति में कारण है ऐसा मूलागम सिद्धान्त “धवत ग्रन्थ" में निम्न प्रकार बताया है।

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