Book Title: Mandir
Author(s): Amitsagar
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 69
________________ मन्दिर (७२) सत्संगति क्यों? “सन्त समागम, प्रभु भजन तुलसी दुर्लभ दोय। सुत दारा अरु लक्ष्मी, पापी के भी होय ।।” धन, सम्पदा, स्त्री इत्यादि इससे कोई मतलब नहीं है । यह तो पापी के भी होते हैं । लेकिन सन्तों का समागम और प्रभु का भजन | ये संसार में अत्यन्त दुर्लभ हैं । "शैल-शैले न माणिक्य, मौक्तिकं न गजे गजे। साधुवो नहीं सर्वत्र, घन्दनं न बने बने ।।" हर पर्वत पर माणिक नहीं होते हैं | हर हाथो के मस्तिष्क पर मुक्ता नहीं होती है | सज्जन, साधु पुरुष हर जगह नहीं मिलते हैं और आपके आस-पास चन्दन का वृक्ष नहीं मिलेगा । इसीलिये सन्त संगति को महत्त्व दिया | कैसे मिलना चाहिये सन्त से? कैसे दर्शन करना चाहिये? कैसे साक्षात्कार करना चाहिये. गोस्वामी तुलसीदास जी का हैं "सन्त मिलन को थालिये, तज माया अभिमान । ज्यों-ज्यों पग आगे धरें, कोटि यज्ञ फल जान ।।" सन्तों के पास जाओ तो माया और अभिमान को थाहर खूटी पर टाँग आओ, छोड़ आओ, क्योंकि गुरु जो बाँट रहे हैं, संत जो लाँट रहे हैं, यदि आप पहले से ही लेकर आओगे तो जो गुरु दे रहे हैं, वह किसमें लंकर जाओगे? उसके लिये आपके पास जगह नहीं होगी। इसलिये माया और अभिमान का अन्दर से जो भराव है उसको बाहर तिलांजली देकर आ जाओ। ___ एक भक्त जब चलने लगा. गुरु दर्शन के लिये तो गुरु महाराज का कमण्डल बाहर रखा हुआ था। उसने कहा- कहाँ जा रहे हो? इधर आओ । उसने कहा मैं गुरु महाराज के दर्शन करने के लिये जा रहा हूँ। तो कमण्डल ने बुलाया और उससे कहा "गुरु दर्शन से प्रथम कमण्डल, कहता मुझको देखो। मुझ जैसा अपने को, गुरु चरणों में मत फेको ।। क्योंकि त्यागियों की सेवा में, यह मेरा जीवन बीता। बहुत सुने उपदेश, मगर फिर भी रीते का रीता।।" खाली पड़ा रहता है बेचारा । भर नहीं पाया आज तक । ऐसे कमण्डल बन कर नहीं आना । जब वह श्रावक, श्रद्धालु, गुरु महाराज के पास पहुंचा तो हाथ में लाई हुई सामग्री को किस प्रकार से अर्पण किया उसने "उदक-चन्दन-तन्दुल पुष्पकैःचरु सुदीप सुधूपः फलार्घकैः । धयल-मंगलगान-रवाकुले, जिनगृहे गुरुणां-अहं यजे ।।" ॐ ह्रीं श्री रत्नत्रय प्राप्तये गुरुभ्यो अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।

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