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मन्दिर
शिखर-गुम्मज मन्दिर जी का शिखर बनाने का दूसरा भाव यह भी है कि किसी भव्य जीव को यदि मन्दिर जी जाने का नियम हो तो परदेश में मन्दिरजी खोजने में आसानी रहती है । दूर से शिखर के दिखने मात्र से ही भव्य जीव को प्रसन्नता होती है जिससे परिणामों में विशुद्धि आती है । शिखर की ऊंचाई से धर्म एवं धर्मात्मा के भावों की उच्चता का भाव होता है कि किस धर्मात्मा व्यक्ति ने अपने चंचल धन का सदुपयोग कर इतना भव्य सुन्दर मन्दिर बनवाया होगा। __ स्वर्ण आदि के कलश धर्म की, चारित्र की समृद्धता का प्रतीक हैं, साथ ही अन्तिम कलश की नोंक सिद्धालय का संकेत करती है कि हे भव्य जीव! तेरा अन्तिम लक्ष्य ऊपर सिद्ध शिला होना चाहिए । मन्दिर जी पर फहराती ध्वजायें निर्मल यशकीर्ति का प्रतीक है। ध्वजा वायु के झकोरों से कम्पित होकर घूमती है जो भव्य जीवों को धर्म की शरण में आने का संकेत करती है कि जो भव्य जीव धर्म की शरण को प्राप्त होगा, उसकी निर्मल यशकीति पताका चारों ओर फहरायेगी।
जैसे आपके गमनागमन व्यवस्था में रास्ते के नियम होते हैं । रास्ते में जो चिन्ह बन होतं हैं, वाहन-चालक उन्हें देखकर अपनी गाड़ी चलाता है । जैसे- गति अवरोधक चिन्ह देखकर गाड़ी धीमी चलाता है आदि-आदि । ठीक उसी प्रकार से आपने पढ़ा/सुना होगा कि देव या विद्याधरों के विमान यदि जिनालयों के ठीक ऊपर से होकर निकलत हों तो वे गतिहीन (चलने में असमर्थ) हो जाते हैं । अतः देव एवं विद्याधरों के लिये स्मृति संकेत के लिये भी ऊपर शिखर बनाये जात हैं जिन्हें देखकर देब विद्याधर उनसे बचकर अपना विमान निकालते हैं, यदि उनमें श्रद्धा-भक्ति एवं समय हो तो वे भी भक्ति, पूजा आदि करके अतिशय आदि भी उत्पन्न करते हैं।
वायुमण्डल का दबाब एवं बादलों की बिजली पतन को अवशोषित करने वाले यन्त्रों को - ऊँचाई पर ही लगाया जाता है जिससे नीचे जमीन पर गिरने के पहले ही उत्त विजली की शक्ति
को बिना नुकसान के यन्त्र के माध्यम से जमीन के नीचे पहुँचा देते हैं जिससं कीमती इमारतें मन्दिर आदि क्षतिग्रस्त होने से बच जाती है | अतः मन्दिर जी में शिखर बनाकर तड़ितचालित आदि लगाने से प्राकृतिक प्रकोपों से भी जिन मन्दिरों को बचाया जाता है | ___कहीं-कहीं मन्दिरों में सहस्रकूटे भी होता है। जिसमें एक हजार आठ मूर्तियाँ होती है। सहस्रकूट, भगवान के एक हजार आठ नामों का यानि सहस्रनाम का प्रतीक है क्योंकि हम लोग अनादिकाल से ही तीथंकरों को सहस्रनाम सं सम्बोधित करते हुये नमस्कार करते आये हैं और आगे भी करते चले जायेंगे | अतः सहस्रकूट को नमस्कार करने का मतलब है कि एक साथ एक हजार आठ नामों के प्रतीक जिनेन्द्र देव को नमस्कार करना ।
कहीं-कहीं नन्दीश्वरद्वीप-जम्बूद्वीप या मध्यलोक आदि की भी कृत्रिम रचनायें हैं । जिनके