Book Title: Mandir
Author(s): Amitsagar
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 62
________________ मन्दिन माला क्यों? त्रैलोक्य-दीक्षा-गुरवे नमस्ते यो बर्धमानोऽपि निजोन्नतोऽभूत। प्राग्गण्ड-शैलः पुनरनि कल्पः पश्चान्न मेरुः कुल पर्वतोऽभूत । जय बोलो जगद्गुरु भगवान महायीर स्वामी की...... शारदे शरद-सी शीतल...... जय बोलो श्री द्वादशांग जिनयाणी माता की..... गुरु भक्त्या वयं सार्द्ध-द्वीप-द्वितय-वर्तिनः बन्दामहे त्रि-संख्योन-नवकोटि-मुनीश्वरान् ।। ___ जय बोलो तीन कम नव करोड मुनिराजों की..... जय बोलो परम गुरु आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज की... जय बोलो शिक्षा गुरु आचार्य कल्प श्री श्रुतसागर जी महाराज की... जय बोलो अहिंसामयी विश्व धर्म की.... कम हमर्ने जगत कल्याणी जिनवाणी माँ के गुण स्मरण किये थे । जिनवाणी माँ हमारे अन्तःस्थल में बैठे हुए अन्धकार को निकाल देती है। हम मन्दिर में बैठे हैं । मन्दिर आय हैं और मन्दिर में हमने अभी तक क्या-क्या पाया है? मन्दिर माध्यम है, अपने अन्दर आने के लिये । अपने से साक्षात्कार कैसे किया जाए? अपनं आपको कैसे उपलब्ध किया जाए? अपने आप में जो निधि है, अपने स्वकीय आत्मीय गुण हैं, उनकी पहचान कैसे हो जाए? उनकी पहचान के लिये यह माध्यम बना है- मन्दिर जी आना । क्योंकि घर में भी व्यक्ति कुछ कर सकता है। लेकिन घर में जो कुछ करता है, आकुलता-व्याकुलता भरा होता है | कहीं बच्चे, कहीं घर के वृद्ध लोग, कहीं अतिथि | कोई न कोई किसी न किसी रूप में बाधक । जिन कारणों से हम अपनी आत्मा के संस्कारों को उद्घाटित नहीं कर पाते हैं, वह वातावरण, वह स्थिति नहीं वन पाती है। ___ इसलिये घर से थोड़ा दूर चलकर हम आते हैं। वहाँ जाकर के थोड़ा समय हम अपनी बुद्धि को थोड़ा विश्राम करायेंगे | विषयों के कोलाहल से दूर ले जाना चाहेंगे। इसलिए इष्ट स्मरण के लिये, गुरु स्मरण के लिये, प्रभु प्रार्थना के लिये, देव पूजा के लिये, मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च यह सब इसलिये बनाये गये हैं कि व्यक्ति अपनी दैनिक भौतिक सामग्री से परे होकर भौतिक आनन्द को छोड़कर, भौतिक सुख को छोड़कर उस सुख को प्राप्त करने के लिये तत्पर रहें जिस सुख को ईश्वर ने, परमात्मा ने, प्रभु ने प्राप्त किया है । उस सुख की अनुभूति

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