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मन्दिर
(६२)
स्वाध्याय
स्वाध्याय नहीं बताया है । जहाँ समत्व परिणाम की अनुभूति हो, उसका नाम स्वाध्याय है। जहाँ सुख-दुख एक से दिखें, उस स्थिति में जाकर स्वाध्याय की परणति बनती है। अपनी आत्मा को सम्यज्ञान से सुशोभित करना स्वाध्याय है। पग-पग पर हमें जो पापों का बोध कराये वहीं स्वाध्याय है, और ऐसे ज्ञान की आराधना करना ही स्वाध्याय है। बस, पोथी पढ़ ली, ग्रन्थों के नाम पढ़ लियं, पेज नम्बर, लाईन नम्बर | कोई समझे, वाह! कितना विद्वान है? लम्बे-चौड़े स्वाध्याय करने की कोई जरूरत नहीं है।
यदि आपको भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक आ जाये, वहाँ पर भी आपका स्वाध्याय जाग्रत हो गया। किसी को जीव रक्षा का भाव आ गया तो वहाँ पर भी स्वाध्याय शुरू हो गया | आप अपने दायित्व को पूरा कर रहे हैं, आप अपने दैनिक कर्तव्यों का पालन कर रहे हैं, वहां पर भी आप अपना स्वाध्याय कर रहे हैं | समय से आप ऑफिस जा रहे हैं, वहाँ भी आप स्वाध्याय कर रहे हैं, आप अपने समय से हर क्रिया का परिपालन कर रहे हैं तो स्वाध्याय बहुत बड़ी चीज नहीं है। लेकिन वह अवतरित होना चाहिए | स्वाध्याय के माध्यम से जो हमारे अन्दर ज्ञान उदभूत होता है, वह चारित्र में ढलना चाहिये, तब वह स्वाध्याय हैं।
"स्व आत्मने अध्येति इति स्वाध्याय" । जहाँ हम आत्मा के निकट रहकर अपना अध्ययन करते हैं उसका नाम है स्वाध्याय । जहाँ हमारी चेतना, सचेत और सावधान रहे, वहीं स्वाध्याय है। जहाँ हमें अपने मन और बुद्धि से हटकर अन्तरात्मा का भाव सुनाई देने लग जाये, वहीं स्वाध्याय है । पुस्तक तो माध्यम है अपनी तरफ आने का, पुस्तक हमें संकेत देती है। पत्थर है, आप इस रास्ते से जाईये, संकेत है। जाओगे तो पाओगे, नहीं तो खड़े-खड़े पछताओगे । अतः स्वाध्याय करना चाहिये।
लेकिन सबसे पहले आप प्रथमानुयोग को पढ़िये, महापुरुषों के जीवन चरित्र को पढ़िये । आपकी आधे से ज्यादा दुविधायें तो वहीं पर समाप्त हो जायेगी । जो मानसिक विकृतियाँ उद्भूत हो रही है आप अपनी खोई हुई शक्ति को प्राप्त कर सकते हैं। प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग, चारों अनुयोगों के अन्दर अपनी चेतना को मांजो ।
लेकिन सबसं पहले प्रश्चमानुयोग के दौर से गुजरो । प्रथमानुयोग हमारा जितना परिपक्व होगा, उतना ही हमारी अनुभुतियाँ परिपक्व होंगी और यदि केवल एक ही अनुयोग को पकड़े बैठे रहें कि आत्मा, आत्मा, आत्मा तो आत्मा इतनी सस्ती चीज नहीं है जो ऐसे ही मिल जाएगी | आत्मा का गुणानुवाद करना, आत्मा की बात करना और आत्मा से बात करना जमीन आसमान का अन्तर है।
एक विद्वान थे जो विशेष रूप से आत्मा का ही गुणानुवाद करते थे। आचार्य क्या कहते हैं, “अदुःखतं भायितं ज्ञानं क्षीयने दुःख सन्नियो" यदि आपकी मिलिट्री (सैनिक) भोजन करते
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