Book Title: Mandir
Author(s): Amitsagar
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 54
________________ मन्दिर (५७) स्वाध्याय इन चारों ग्रन्थों के अन्दर आपको इतने नजदीक में ले जाकर बैठा दिया है कि आप अपने आप को पा लो । समय होना चाहिये । ज्यादा बड़े-बड़े ग्रन्थ नहीं हैं, छोटे-छोटे ग्रन्थ हैं | सम्यक्त्व कौमुदी, धर्म परीक्षा, श्रेणिक चरित्र और प्रद्युम्न घरित्र । ऐसा लगेगा कि यह हमारे जीवन की कहानी है और पढ़ते-पढ़ते यह आभास हो जायेगा कि यह हमारी ही कहानी हैं | हम स्वयं इसके पात्र हैं तो आपके अन्दर के बैठे सारे भ्रम टूट जायेंगे। प्रथमानुयोग बहुत कुछ देता है। अपने जीवन में घार ग्रन्थों को जस्कर पक लेना समय निकाल करके । यह प्रथमानुयोग बताता है | करणानुयोग क्या बताता है ? स्वामी समन्तभद्र आचार्य देव ही करणानुयोग को व्यवस्थित करते लोकालोक विनत-चुंगारतरतुलनाचा आदर्श-मिव तथामति-रवैति-करणानुयोगं च ।।४।। (रत्न. श्रा.) लोक और आलोक की व्यवस्था को करणानुयोग बताता है । करणानुयोग को गणितानुयांग भी कहते हैं जो लांक और अलोक की व्यवस्था को, चारों गतियों की व्यवस्था को बताता है । कैसे 'आदर्श मिव' मतलब दर्पण के समान स्पष्ट रूप से बतलाता है । वह करणानुयोग कहलाता है। करण कहते है परिणाम को, भावों को, किस व्यक्ति के किस प्रकार के परिणाम हैं, भाव हैं और उसे उन परिणामों का, क्या कैसा फल मिलेगा? यह करणानुयोग बतलाता है, करणानुयोग हमारी आन्तरिक व्यवस्था को बतलाता है | आठ प्रकार के कमों की व्यवस्था को बतलाता है | लोक और अलोक के विभाग को, लोक और अलोक की व्यवस्था को बतलाता है | चरणानुयोग क्या बतलाता है? गृहमेध्य-नगाराणां, चारित्रोत्पत्ति-वृद्धि-रक्षाङ्गम् । चरणानुयोग-समयं, सम्यग्ज्ञानं विजानाति ।।४५ ।। (रत्न. श्रा.) गृहस्थ और मुनियों के चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा-कितने सुन्दर शब्द दिये हैं स्वामी समन्तभद्र आचार्य ने । चारित्र की उत्पत्ति कैसे हो, चारित्र की वृद्धि कैसे हो और चारित्र की रक्षा कैसे हो? इन तीनों को बताने वाला चरणानुयोग है । और द्रव्यानुयोग क्या बतलाता जीवाजीव-सुतत्त्वे, पुण्यापुण्ये च बन्ध मोक्षौ च। द्रव्यानुयोग दीपः श्रुत-विद्यालोक-मातनुते ।।४६ ।। (रत्न. श्रा.) द्रव्यानुयोग जीव और अजीव तत्वों की, सात तत्त्वों की व्यवस्था को बतलाने वाला पुण्य और पाप की व्यवस्था को करने वाला द्रव्यानुयोग कहलाता है | द्रव्यानुयोग तो अन्तिम चरण है जहाँ आपको केवल उन तत्त्वों की अनुभूति करना है। जहाँ आपको कुछ भी नहीं करना

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