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मन्दिर
(२४)
मन्दिर जी जाने से पूर्व क्या करें ?
देते हैं और न हमसे कुछ माँगते हैं, तब हम उनके लिये इतनी बहुमूल्य सामग्री क्यों चढ़ाते हैं ? कुछ सामग्री जैसे - फूल-दीप-धूप - फल चढ़ाने में तो कुछ हिंसा या सावधता भी होती है, फिर हम उन्हें क्यों चढ़ाते हैं? इन सभी प्रश्नों का उत्तर स्वामी समन्तभद्राचार्य जी ने स्वयंभू स्तोत्र में तीर्थंकर वासुपूज्य जी की स्तुति करते हुए दिया है
न पूजयार्यस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ! विवान्त वैरे । तथापि ते पुण्य-गुण स्मृतिर्नः पुनातु चित्तं दुरिताऽजनेभ्यः । । ५७ ।। उज्यं जिनं त्वार्य जनस्य भावद्य लेशो बहुपुण्य राशी | दोषाय नाल कणिका विषस्य, न दूषिका शीत शिवाम्बु राशी ।।५८ ।।
हे वीतराग प्रभो! आपकी पूजा करने पर आप प्रसन्न नहीं होते एवं आपकी निन्दा करने पर आप बैर धारण नहीं करते हैं। फिर भी संसारी प्राणी आपके निर्मन्त गुणों का स्मरण करके अपने मलिन चित्त को पवित्र कर लेते हैं । । ५७ ।।
" यद्यपि पूज्यों की अर्चना में कुछ आरम्भ (हिंसा) होता है और आरम्भ सावध यानि पाप है, किन्तु आपकी पूजा से असीम पुण्य राशि अर्जित होती है । इस अपेक्षा से यह सावधता अत्यन्त्य अल्प है।" जैसे- समुद्र की अमृत समान जल राशि में यदि विष की एक बूँद गिर जाये तो समुद्र का पानी जहरीला नहीं हो जाता है। ठीक उसी प्रकार से आपकी पूजा आदि से प्राप्त विशाल पुण्य राशि के सामने पाप की एक छोटी-सी बूंद का क्या महत्त्व है? अर्थात् कुछ भी नहीं। पूजाशील-दान- उपवास आदि बिना सावधता (आरंभी हिंसा) के नहीं हो सकते हैं ऐसा 'जयधवला पु० प्रथम पृष्ठ ९१ में लिखा है। आज वैज्ञानिक शोधों से सिद्ध हो चुका है कि मंदिरों में धार्मिक अनुष्ठानों से होने वाले अहिंसक यज्ञों में शुद्ध घी आदि की आहूति से पर्यावरण परिशुद्ध होता है | वैज्ञानिक कहते हैं कि गाय के घी से यज्ञ करने से बायुमंडल में एटमिक रेडिएशन का प्रभाव क्षीण होता है। एक तोला ( दस ग्राम ) ग्राम घी से यज्ञ करने से एक टन आक्सीजन बनता है। अतः मन्दिरों में घी के दीपक जलाये जाते हैं। लेकिन दीपक को काँथ या लोहे की जाली से ढक कर रखें। जिससे त्रस जीवों की हिंसा भी नहीं हो इतना विवेक रखें। अतः आचार्यों के वाक्य प्रामाणिक मानकर दूसरों को कुछ मनमानी बातों को महत्त्व नहीं देना चाहिये ।
'धवला' पुस्तक में आचार्य श्री वीरसेन स्वामी से एक शिष्य ने बहुत ही सुन्दर प्रश्न किया है कि हे भगवन्! जब अरिहंत के चार घातिया कर्म नष्ट हो गये, उनमें जो अन्तराय कर्म नष्ट होने से, उनके अनन्त दान, अनन्त लाभ, अनन्त भोग, अनन्त उपभोग एवं अनन्त वीर्य प्रगट हुआ | अतः भगवान अनन्त दान के दाता हुए तो फिर वे हमें अनन्त दान क्यों नहीं देते हैं। यदि देते हैं तो हमें क्यों नहीं दिखता, मिलता है? आचार्य वीरसेन स्वामी इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि हे भक्त! भगवान तो अनन्त दान निरन्तर देते ही रहते हैं 1 यदि वे अनन्त दान