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मन्दिर
(२६)
मन्दिर जी आते समय क्या करें?
देवाधिदेव!
परमेश्वर !
वीतराग!
सर्वज्ञ! तीर्थकर ! सिद्ध! महानुभाव! त्रैलोक्य नाथा जिन पुंगव ! वर्धमान ! स्वामिन्! गतोऽस्मि शरणं चरणं-द्वयं ते!
जय बोलो देवाधिदेव श्री महावीर भगवान की मात जिनवाणी तेरी स्तुति है बार.....
जय बोलो श्री द्वादशांग जिनवाणी माता की...... जय बोली आचार्य गुरुवर्य श्री धर्मसागर जी महाराज की...... जय बोलो अहिंसामयी विश्व धर्म की........
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कल हमने मन्दिर के महत्त्व पर मन्दिर क्यों आना चाहिये, क्या लाना चाहिये? आदि बातों को सुना था। आज हम चर्चा करेंगे कि अब आगे मन्दिर जी कैसे आना चाहिये आदि ?
मन्दिर जी आते समय क्या करें?
घर में स्नानादि के समय या जब से जिनेन्द्र देव के दर्शन की भावना प्रारम्भ होती है, तभी से उस देव दर्शन का फल एवं महत्त्व प्रारम्भ हो जाता है, ऐसा हमारे पूर्व आचार्य कहते हैं कि
जब चिन्तो तब सहस्र फल, लक्खा फलं गमणेय । कोड़ा कोड़ी अनन्त फल जब जिनवर दिट्ठेय । ।
अर्थात् जब हमें भगवान के दर्शन करने का विचार - संकल्प मन में आता है कि अरे! अभी हमें मन्दिर जी जाना है, भगवान के दर्शन करना है। ऐसा चिन्तन आते ही हजार गुणा फल प्रारम्भ हो जाता है। जब आप सामग्री आदि लेकर भक्ति स्तुति आदि पढ़ते हुये मन्दिर की ओर ईर्यापथपूर्वक चल देते हैं, तब आपको लाख गुणा फल होता है। लेकिन जब आप मन्दिर जी में पहुँचकर साक्षात् जिनमूर्ति के दर्शन करते हैं, तब अवश्य ही अनन्त कोडा कोड़ि फल होता है। आपने पढ़ा होगा, सुना होगा कि श्री सम्मेद शिखर जी की प्रत्येक टॉक की बन्दना करने से इतने इतने करोड़ों उपवासों का फल मिलता है। इतना ही नहीं तत्त्वार्थ सूत्र के रचयिता उमास्वामी आचार्य जी ने भी अन्तिम प्रशस्ति में लिखा है कि
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