Book Title: Mandir
Author(s): Amitsagar
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 38
________________ मन्दिर (४१) प्रशस्तिकरण प्रामाणिक, विशुद्ध एवं निर्विवाव रहा हो । अतः कुन्दकुन्दाचार्य को जो ज्ञान प्राप्त था, वह ज्ञान भगवान महावीर, गौतम गणधर एवं अन्य श्रुत केवलियों की सात पीढ़ियों से निर्विवाद- सुरक्षित उपलब्ध हुआ था। इसकी प्रामाणिकता भी समयसार के मंगलाचरण में 'मिणमो सुय केवली भगवं' से सिद्ध है। अतः सभी से 'सरस्वती गच्छे' इस प्रकार से प्रमाणित करने के लिए लगाया गया है। यह तो हमारी समझ में आ गई किन्तु प्रशस्ति में यह 'बलात्कार गणे' क्यों लिखा है? यह हमारी समझ में नहीं आता । सुनो! इसके पीछे एक घटना है कि जय बारह वर्ष के अकाल से श्रमण संस्कृति के दो टुकड़े दिगम्बर-श्वेताम्बर रूप में हो गये । उसके कुछ समय बाद दोनों सम्प्रदाय के आचार्य गिरनार पर्वत की वन्दना हेतु पधारे । दिगम्बर मुनि संघ के नायक जगत प्रसिद्ध कुन्टकुन्दाचार्य थे एवं श्वेताम्बर संघ के स्थूलभद्राचार्य थे । तब इन दोनों संघों में पर्वत की वन्दना को लेकर कुछ विवाद हुआ कि हम पुराने हैं, बड़े है, सच्चे हैं । अतः सबसे पहले गिरनार पर्वत की वन्दना हम करेंगे । इस प्रकार के विवाद को सुलझाने के लिए एक तरीका खोजा गया कि इस पर्वत की अधिष्ठात्री अम्बिका देवी जिसे पहले कह देगी, वही पहले पुराना एवं सच्चा माना जायेगा और वह सबसे पहले पर्वत की वन्दना करेगा। __यह प्रस्ताव दोनों पक्षों को मान्य हुआ । सबसे पहले श्वेताम्बर आचार्य ने अम्बिका देवी को बुलवाने की अथक चंष्टा की, किन्तु अम्बिका देवी प्रगट नहीं हुयी और नाहीं कुछ हाँ या ना का जवाब दिया । लेकिन जब दिगम्बराचार्य श्री कुन्दकुन्दाचार्य जी ने जोर देकर कहा कि सच बोल, कौन पहले के हैं? तब अम्बिका देवी प्रगट होकर आवाज देती है कि "आद्य दिगम्बरआदि दिगम्बर, सत्य पंथ निरग्रन्थ दिगम्बर ।" इस प्रकार जोर देकर जबरन (बलात) बुलवाने से इस गण का नाम 'बलात्कार गण' प्रसिद्ध हुआ। तभी से प्रशस्ति में यह शब्द भी उत्कीर्ण किया जाने लगा। तभी तो कहा कि संघ सहित श्री कुन्दकुन्द गुरु, बन्दन हेतु गये गिरनार। बाद पर्यो तह संशयमति सों, साक्षी बदी अम्बिकाकार ।। सत्य पंथ निरग्रन्थ दिगम्बर, कही सुरी तह प्रगट पुकार। सो गुरुदेव बसौ उर मेरे विघन हरण मंगल करतार ।। इसी परम्परा का निर्वाह समन्तभट्टाचार्य जैसे दिगम्बर गुरुओं ने किया है। देश-देश के राज्यों की राज्य सभाओं, वादशालाओं में जा-जाकर धर्म के सत्य स्वरूप को बलात् (जबर्दस्ती) प्रगट करके, जैन धर्म की प्रभावना की । शुभचन्द्राचार्य ने ज्ञानार्णव प्रन्य में लिखा है धर्मनाशे क्रियाध्वंसे, सुसिद्धान्त सुविप्लवे । अपृष्ठे ऽपि वक्तव्यं, एतत्स्वरूप प्रकाशनं ।।

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