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मन्दिर
जिन बिम्बोपदेश से सुशोभित है, खिला हुआ है | इस कारण से उनके मुख कमल पर भी वह निर्विकार मुस्कान झलक रही है। नासान दृष्टि होने का अर्थ है जिन्होंने अन्तरात्मा का दर्शन कर स्वरूप में लीन हो, “परमात्मा" का पावन पद प्राप्त कर लिया है। क्योंकि बहिरात्मा जीव के काम-क्रोध-मदलोभ की जागृति होने पर उसकी आँखों-पलकों भौहों में विकार अवश्य आता है । लेकिन जिनके काम-क्रोध-मद-लोभ रूप विकार नष्ट हो गये हैं, जो बहिरात्मपन के भाव को छोड़कर, अन्तरात्मा के स्वरूप को प्राप्त होते हुए सकल परमात्मा रूप पद को प्राप्त कर गये हैं। उसी स्वरूप का अवलोकन कर रहे हैं। इसलिये उनकी नासाग्र दृष्टि है।
प्रतिमा के सिर पर जो गोल-गोल घुघराले-धुंघराले छल्ले केश-वाल के रूप में बने हुए हैं। जानते हैं आप- ये क्या है? यह बाल या केश नहीं हैं, इन्हें केश नहीं कहते हैं । उन्हें 'सीतायें कहते हैं। ये सीतायें उन्हीं महान आत्मा के होती हैं जिनके रागादि विकारों से रहित होकर, श्वासोच्छादास का प्रवाह मासिका के छिद्रों से न होकर, स्वमेव बिना इच्छा के तालु के बाल की अनी के आठवें भाग प्रमाण, अति सूक्ष्म छिद्र से निकलता है । यानि नासिका के छेद से नहीं निकलकर तालु रन्ध्र या ब्रह्मरन्ध्र से निकलती हैं, यह पूर्ण सयमो के वायु का निराध स्वभव स्वाभाविक होता है, बाधापूर्वक नहीं होता है । क्योंकि मस्तिष्क से ऊर्जा के नीचे की ओर प्रवाहित होना, भीतिक जगत में प्रयेश है। इससे सांसारिक सुख का अनुभव होता है। लेकिन कामकेन्द्र की ऊर्जा का ऊपर की ओर जाना अध्यात्म उन्नति का कारण है। इससे आत्मिक सुख की अभिवृद्धि होती हैं।
शरीर विज्ञान के हिसाब से भी शुषुम्ना में ये गाँठे ब्रह्मरन्ध्र वायु के वेग-विशेष से खिलती है, यह मनुष्य के शरीर में होने वाली विद्युत को गति का परिवर्तन है। क्योंकि इस विधुत के अधोगति यानि नीचे जाने से इन्द्रिय भोग आदि का सुख मिलता है एवं ऊर्ध्वगमन करने से वह अपनी धन-ऋण विद्युत के मिलने से ब्रह्मचर्य का प्रकाश होता है, जिससे शक्ति की वृद्धि तो होती ही है । लेकिन जीवन में स्वतंत्र स्थायी पूर्ण सुख मिलने लगता है। जिनकी शक्ति अपने में रमण करती है, उन्हीं को आचार्य, योगी या उध्वरेतस कहते हैं।
शरीर विज्ञान की प्रणाली से ही इस मस्तिष्क के चार मुख्य भाग हैं- १. प्रमस्तिष्क (cerebrum)२.अनुमस्तिष्क (cerebellum)३. मज्जा सेतु (morns varolli) ४. शुषुम्ना (Medulla Oblongata) । इन चार भागों में बँटे होने पर भी हमारा मस्तिष्क एक गहरे विदर से दो गोलाद्धों में बँटा हुआ है । लेकिन इस विदर के नीचे दोनों भाग तंत्रिका तन्तु द्वारा जुई हुये हैं 1 प्रथम प्रमस्तिष्क में अनेको गहरी सीतार्थ-वत् सिकुड़नें होती है अर्थात् बहुत सी लहरिकार्ये होती हैं जिनका व्यक्ति की बुद्धिमत्ता से भी घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। ये लहरिकायें या धाईयाँ या छल्ले जितनी अधिक मात्रा में होती हैं, मनुष्य उतना ही बुद्धिमान होता है। अतः इससे सिद्ध