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मन्दिर
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तिलक क्यों?
लोहा जंग लगा हुआ नहीं होना चाहिए। क्योंकि जंग लगे लोहे को पारसमणि से कितना ही छुआओ, वह लोहा सोना भी सकता है। ठीक उसी प्रकार से पिंजार कि विषय - कषाय रूपी जंग लगी हो, उस शरीर को कितना ही गन्धोदक में स्नान कराओ, वह निरोग नहीं हो सकता है। अतः गन्धोदक के प्रभाव को देखने के लिए पहले उसकी आस्था होना तो जरूरी है, किन्तु विषय कषायों से उदासीनता - संयम त्याग भी जरूरी है।
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कुछ लोग विवाद या प्रश्न करते हैं कि गन्धावक को उत्तमांग (मस्तक-गला तथा नाभि से ऊपर) ही लगाना चाहिए। जिस प्रकार औषधि खाने की खाई जाती है लगाने की लगाई जाती है। ठीक उसी प्रकार से रोगग्रस्त अवस्था में गन्धोदक को सर्वांग में लगाने से कोई विरोध नहीं आता है क्योंकि मैनासुन्दरी ने पति सहित सात सौ कुष्टियों पर गन्धोदक छिटका था । as क्या गन्धोदक गलित कुष्टों के घावों पर नहीं लगा? कहा भी है
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चरण-कमल-गंधोदएण
" जिण तणु सिंचविकलिमलु हणि उजेण । संसार . महावय णासठाई पवि हियहं जेण सुह-भावणाई 1।"
अर्थात् श्री जिनेन्द्र भगवान के चरण कमलों का गन्धोदक लेकर जिसने अपने शरीर को सिंचित किया. उसने कलि- पाप भल का नाश करके पवित्र हृदय में सुख की भावना को प्राप्त कर लिया। अतः इस विषय में भी हमें विवाद नहीं करना चाहिए |
तिलक क्यों?
“तिलक, भारतीय संस्कृति की सभ्यता की निशानी है।” तिलक देखकर ही व्यक्ति बिना पूछे ही उसे आस्तिक- धार्मिक समझता है । व्यवहार जगत में भी तिलक मंगलता का प्रतीक माना गया है। रक्षाबन्धन दीपावली आदि पर्वों पर एवं मेहमान होने पर, परदेश या युद्धभूमि में जाने से पूर्व तिलक का महत्त्व है। तिलक मस्तक पर लगाया जाता है। यह इस बात का प्रतीक हैं कि आपत्ति-विपत्ति में ठण्डे दिमाग से काम लें । व्यक्ति के मस्तक के ठीक बीचों-बीच कुछ ऐसी नसें, आज्ञा चक्र में होती है जिन्हें दबाने से शरीर में, मन में कुछ परिवर्तन अवश्य होता है। उत्तः मुख्यतः तिलक मस्तक पर लगाते हैं। पूजा विधि में नव स्थानों पर तिलक लगाया जाता है। तिलक बनाने में मुख्यतः चन्दन- केशर के साथ कपूर घिसकर प्रयोग किया जाता है। तिलक मस्तक पर लगते ही मस्तक का उपयोग बदलने लगता है, ध्यान एकाग्र होने लगता है। नारी को चन्दन- केशर की बिन्दी रूप तिलक एवं मनुष्य को मेरु के समान लम्बा तिलक लगाना चाहिए ।