Book Title: Mandir
Author(s): Amitsagar
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 33
________________ मन्दिर (३६) गंधोदक का महत्व सम्यग्ज्ञान चरित्र दर्शनलता, संवृद्धि सम्पादकम् । कीर्ति श्री जय साधकं तव जिन! स्नानस्य-गन्धोदकम् ।। जिनाभिषेक का महत्त्व जिनसेनाचार्य देव ने आदि पुराण ग्रन्थ में निम्न प्रकार से लिखा है माननीय मुनीन्द्राणां जगतामेक पावनी । साव्याद्-गन्धाम्बु-धारास्मान् या स्म व्योमाप-गायते ।। (१३/१९५) जो मुनीन्द्रों के द्वारा भी सम्माननीय है तथा संसार को पवित्रता प्रदान करने में अनुपमअद्वितीय है, वह आकाश गंगा के समान प्रतीत होने वाली गन्धाम्बुधारा (अभिषक) हम सबका कल्याण करे। जरा सोचने और समझने की बात है कि हमारे व्यवहारिक जीवन के उपयोग में आने वाला साधारण जल भी हमारे द्वारा उच्चारित किये गये शांति मंत्रों से तथा जिन प्रतिमा को पंचकल्याण के समय अंकन्यास विधि से एवं 'सूर्यमंत्र' से प्राण प्रतिष्ठित की गई थी, उनसे मन्त्रित हो जाता है। क्योंकि पाषाण प्रतिमाओं में भी धातुओं के अंश अवश्य ही होते हैं और धातुएँ विद्युत की सुचालक होती हैं । मारबल के पाषाण में दूध सं दही जमाने (बनाने) की शक्ति है | दक्षिण भारत में आज भी कई मूर्तियाँ ऐसी हैं, जिनके अभिषेक जल के प्रयोग से सर्प विश्व भी उतर जाता है। प्रतिमाओं में “सूर्यमंत्र" देने का अधिकार दिगम्बर साधु को ही है। जिस प्रकार अखिल विश्व को प्रकाश देने वाला सूर्य अखण्ड शक्ति का स्त्रोत है । आज का आधुनिक विज्ञान सूर्य ऊर्जा से कई यंत्रों को संचालित कर रहा है । अत."सूर्यमंत्र' को साधन रूप सिद्धि प्राप्त करने वाले कुशल वैज्ञानिक हमारे दिगम्बर साधु ही होते हैं। जिस मूर्ति का 'सूर्यमंत्र' संयमशील, दृढ़ चरित्र साधु द्वारा दिया गया होगा, वह मूर्ति उलनी ही आकर्षक, चमत्कारी एवं प्रभावकारी होती __ जल विधुत का सुचालक है, सार्वभौमिक द्रव्य है, हर जगह आसानी से उपलब्ध हो जाता है। अतः जब यह जल जिन प्रतिमा पर अभिषिक्त होता है, तब मूर्ति के चारों ओर प्रवाहित होने वाला 'सूर्यमंत्र' का तेज-ऊर्जा उससे यह जल भी संस्कारित (चार्ज) होकर असाध्य रोगों को दूर करने में समर्थ हो जाता है । मैनासुन्दरी ने इसी गन्धोदक के माध्यम से अपने पति श्रीपात्न — सहित सात सौ कुष्टियों का कुष्ट रोग दूर कर दिया था। . लेकिन पुनः एक प्रश्न उठता है कि जब यह गन्धोदक असाध्य रांगादि को दूर करने में समर्थ है, इससे हमारे जीवन में होने वाली मानसिक-दैहिक-दैविक व्याधियाँ दूर क्यों नहीं होती हैं? आपका प्रश्न बहुत ही उत्तम है। आपने सुना होगा कि पारसमणि यदि लोहे से छू जाए तो 'लोहा, सोना बन जाता है, परन्तु सोना बनने वाले लोहे के साथ एक शर्त यह भी है कि

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