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मन्दिर
(२५)
मन्दिर जी जाने से पूर्व क्या करें?
नहीं दें तो उनका महत्त्व ही घट जायेगा । लेकिन लेने वाले का लाभान्तराय कर्म का क्षयोपशम नहीं है तो उसे उस अनन्त दान का लाभ नहीं मिल सकता है।
आप सबने अकृत पुण्य (धन्य कुमार) का चरित्र पढ़ा/सुना होगा । उसने पूर्व भव में मन्दिर के धन को खाया, फिर भी उसका जन्म एक नगर सेठ के यहाँ हुआ । किन्तु उसके गर्भ में आते ही सेठ का धन नष्ट हो गया एवं उसके पैदा होते ही वह सेठ मर गया | अतः उसका नाम अकृत पुण्य रखा गया । किसी तरह उसकी माँ ने मेहनत-मजदूरी करके उसे पाला-पोसा । जब वह चौदह-पन्द्रह वर्ष का हुआ तो एक दिन किसी सेठ के खेत में मजदूरों के साथ उसने भी मजदुरी की। शाम को मजदूरी बाँटते समय मजदूरों ने उस बालक को मजदूरी देने की अनुमोदना संठ से की, तब उस बालक का परिचय सेठ ने पूछा | तब लोगों ने यतलाया कि यह हमारे पुराने नगर के सेठ के लड़का है । उनकी मृत्यु के बाद इसकी माँ और यह मजदूरी आदि करके ही पेट 'गलते हैं।
सेठ को उस बालक पर बड़ी दया आयी | सेठ ने सभी मजदूरों को तो निश्चित मजदूरी देकर विदा किया । लेकिन उस अकृत पुण्य को सेठ जी ने करुणा भाव से सोना-चाँदी आदि कीमती द्रव्य दिया । लेकिन जैसे ही अकृत पुण्य के हाथों में वह कीमती द्रव्य आया, वैसे ही अंगारों के समान गर्मी से उसके हाथ जलने लगे, जिससे अकृत्त पुषय को बहुत वेदना हुई और उसने यह कीमती द्रव्य वहीं छोड़ दिया। पुनः सेठ जो न विचार किया कि इसे कुछ अधिक बने देना चाहिये । सोना-चाँदी इसके भाग्य में नहीं है। अतः उसे एक बड्डी पोटली में चने बाँधकर दिये लेकिन पोटली में छिद्र होने से घर आते-आते थोड़े से ही चने उस पोटली में बचे ।।
अतः कहने का तात्पर्य यह है कि मन्दिर जी में जो भी धन-द्रव्य-सामग्री चढ़ाते हैं, वह हमारे लाभान्तराय कर्म के क्षय-क्षयोपशम में कारण अवश्य बनता है, जिससे हमें चाही-अनचाही अनुकूल वस्तुओं की प्राप्ति अनायास ही होती है इसलिये ऐसा कभी मत सोचो कि मन्दिर जी में द्रव्य चकानं सं कुछ नहीं होता। जव मन्दिर जी का निर्माल्य द्रव्य खाने से दरिद्रता मिल सकती है, तव मन्दिर जी में द्रव्य चढ़ाने से धन-वैभव मिल जाये तो क्या आश्चर्य है?
आज बस इतना ही..... बोलो महायीर भगवान की.......
जो व्यक्ति अर्थ की अल्प हानि होने से दुखी होते हैं, उन्हें धर्म की समग्र हानि होने का दुःख क्यों नहीं होता है?
- अमित वचन