Book Title: Mandir
Author(s): Amitsagar
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 25
________________ मन्दिर (२८) देव-दर्शन-स्तोत्र वर्शनं-देव-वेवस्य, दर्शनं पाप नाशनम् । दर्शनं स्वर्ग सोपानं, दर्शनं मोक्ष साधनम् ।। दर्शनेन जिनेन्द्राणां, साधुनां यन्दनेन छ। न थिरं तिष्ठते पापं, छिद्र हस्ते यथोदकम् ।। वीतराग मुलं दृष्टवा, पद्मराग सम प्रभं । जन्म-जन्म कृतं पापं, दर्शनेन विनश्यति। दर्शनं जिन सूर्यस्य, संसार ध्वान्त-नाशनम् ।। बोधनं थित पद्मस्य, समस्तार्थ प्रकाशनम् | दर्शनं जिन चन्द्रस्य, सद्धर्मामृत-वर्षणं। जग दारोमासाम, बई शरिधे। जीवादि तत्त्य प्रतिपादकाय, सम्यक्त्य मुख्याष्ट गुणार्णवाय । प्रशान्त रूपाय दिगम्बराय, देवाधिदेवाय नमो जिनाय ।। चिदानन्दैक रूपाय, जिनाय परमात्मने। परमात्म-प्रकाशाय, नित्यं सिद्धात्मने नमः ।। अन्यथा शरणं नास्ति, त्वमेव शरणं मम। तस्मात्कारुण्य भावेन, रक्ष-रक्ष जिनेश्वरः ।। न हि बाता, न हि त्राता, न हि त्राता जगत्त्रये। वीतरागात्परो देयो, न भूतो न भविष्यति।। जिने भक्ति-जिने भक्ति-र्जिने भक्ति-दिने-दिने । सदा मेऽस्तु, सदा मेऽस्तु, सदा मेऽस्तु भवे-भवे ।। जिन धर्म विनिर्मुक्तो, मा भवेथ्यक्रवर्त्यपि । स्याध्येटोऽपि दरिद्रोऽपि, जिन थर्मानुवासितः ।। जन्म-जन्म कृतं पापं, जन्म कोटि समार्जितम् । जन्म-मृत्यु जरा रोगं, हन्यते जिन दर्शनात्।। अद्या भवत्सफलता नयन द्वयस्य, देव त्वदीय चरणांबुज वीक्षणेन । अद्य त्रिलोक-तिलक प्रतिभासते मे, संसार बारिधि-रयं चुलुक प्रमाणम् ।।

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