Book Title: Mandir
Author(s): Amitsagar
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 28
________________ मन्दिर रोगनाशक है शंखध्वनि घंटा ध्वनि परीक्षण के लिये गठित की जिसने सात दिनों तक परीक्षण के बाद घोषित किया कि घंटा ध्यान से तपेदिक रोग ठीक होता है। तपेदिक के अतिरिक्त इससे कई अन्य शारीरिक कष्ट भी दूर होते हैं तथा मानसिक उत्कर्ष भी होता है । मास्को के एक सेनिटोरियम में विगत कई वर्षों से तपेदिक के इलाज के लिये घंटा ध्वनि का प्रयोग किया जा रहा है ! साभार प्रस्तुतिदीक्षान्त ठाकुर, विश्वमित्र, कलकत्ता (१६.४.१९९७) ___ आज के वैज्ञानिक युग में तरह-तरह के ध्वनि प्रसारण यंत्रों के चलने से ध्वनि प्रदूषण भी होने लगा है जिससे इन धर्म यंत्रों की ध्वनियों का प्रभाव कम हो गया है। फिर भी यदि भक्तिभावनापूर्वक प्रयोग का जाये तो सफलतायें आज भी मिलती है मिल सकती है | कहीं-कहीं सुरक्षा की दृष्टि से घंटा मंदिर जी के भीतर लगा रहता है। घंटा बजाने के बाद ॐ जय-जय-जय । निस्सही, निस्सही, निस्सही। नमोऽस्तु-नमोऽस्तुनमोऽस्तु मध्यम स्वर से (न अधिक जोर से, न अधिक धीरे से) बोलना चाहिये । मन्दिर जी में प्रवेश करते समय “निस्सही" क्यों बोला जाता है? जिस प्रकार से मनुष्य अपने घर-परिवार की टोलियों की टोलियाँ बनाकर तीर्थयात्राओं को जाते हैं, ठीक उसी प्रकार से देवगति के चतुर्निकाय के देवतागण भी अदृश्य होकर तीर्थयात्राओं को आते हैं और जिन-मन्दिरों की भक्तिपूजा आरिडे ग्रोपार्जन काते है एवं नो मुर्तिगाँ उनके मन भा जाती हैं, जो स्थान उन्हें आकर्षित करते हैं, वहाँ पर वे देवतागण अतिशय भी दिखलाते हैं । अतः 'निस्सही' शब्द इसलिये बोला जाता है कि वहाँ पर पहले से आये, मौन भक्ति-पूजा में मग्न अदृश्य देवतागण यदि हों तो उनकी भक्ति पूजा में विघ्न न हो । वे देवतागण 'निस्सही' शब्द सुनकर व्यवस्थित हो जाते हैं एवं आपको भी दर्शन-पूजन-भक्ति के लिये बहुमान, स्थान देते हैं । इसी के साथ क्षेत्रीय देवतागण क्षेत्रपालादिक से मन्दिर जी में प्रवेश की अनुमतिसूचक यह शब्द उच्चारण किया जाता है । ___ कुछ लोग 'निस्सही' शब्द का अर्थ अशुभ रागादि विकल्पों को मंदिर जी के बाहर छोड़ना मानते हैं । परन्तु जब हम लोग घर से मन्दिर जी की ओर घलते हैं, तभी हमारे अशुभ रागादि विकल्प परिणाम छूट जाते हैं, छूट जाने चाहिये | तय फिर 'निस्सही' शब्द के अशुभ रागादि विकल्प छूटते हैं ऐसी युक्ति नहीं लगती है। मूल बात, प्रामाणिक व्याख्या यह है कि हमारे चरणानयोग-मलाचार आदि ग्रन्थों में आचायों ने साधुओं एवं श्रावकों के लिये भी तेरह प्रकार की क्रियाएँ बतलाई है 1 पंचपरमेष्ठी को नमस्कार, छह आवश्यक, निस्सही एवं आस्सही इस प्रकार कुल तेरह क्रियाएँ लिखी हैं। इसमें निस्सही का प्रयोग तो मन्दिर जी में नगर, ग्राम, घर, श्मशान आदि में प्रवेश करने के पूर्व, किसी वृक्ष के नीचे बैठने, लघुशंका, दीर्घशंका करने से पूर्व प्रयोग किया जाता है एवं उस स्थान को छोड़ते हैं या बाहर निकलते हैं तब 'आस्सही-आस्सही-आस्सही' तीन चार बोला जाता है। अतः इससे सिद्ध है कि 'निस्सही' शब्द का प्रयोग मात्र अशुभ रागादि छोड़ने के लिये नहीं किया जाता,

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