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मन्दिर
संस्कार से संस्कृति
तो तैरना जानते थे, वे तो पानी में कूदकर तैरने लगे । सौदागर ने सोचा- मेरे पास तो दो पीपे हैं, इन्हें लेकर कूद जाऊँगा तो सोना भी बच जायेगा और मैं भी। लेकिन जैसे ही सौदागर उन स्वर्ण से भरे हुए पीपों को लेकर समुद्र में कूदा, आज तक ऊपर श्वांस लेने नहीं आया । जैसे ही डूबा जलीय जन्तुओं ने खा लिया।
जिस प्रकार उस सौदागर के पास पानी में तैरना सीखने के लिये तीन दिन का समय नहीं था सो पानी में इबकर मर गया । एक अवसर भी दिया कि खाली पीपों को पास रखना । इसके सहारे भी तुम तैर सकते हो पानी में । लेकिन उस सौदागर ने लोभ के कारण उन खाली पीपों को भी पाप रूपी स्वर्ण से भर लिया और संसार समुद्र में डूब गया |
उसी प्रकार से जो हमें मनुष्य जन्म संसार समुद्र से पार होने के लिये मिला था, यह जीव व्रत-नियम-संयम आदि के माध्यम से आत्मिक शक्ति को जाग्रत करके संसार समुद्र तिर सकता है। लेकिन यदि आपके पास इतना समय नहीं है ग्रत-नियम-संयम पालन करने के लिये तो कम से कम “मन्दिर" एक ऐसा खाली पीपा है जिसके सहारे से भी व्यक्ति संसार-सागर का किनारा पा सकता है। लेकिन व्यक्ति ने मंदिर जैसी प्रक्रिया की उपेक्षा कर दी है। उसे भी नाना प्रकार की सांसारिक आकांक्षाओं की पूर्ति का स्थान बना लिया है। जिससे यह जीव संसार समुद्र में डूब रहा है। अतः कम से कम "मंदिर जी" जैसा खाली पीपा अपने पाम हमेशा सुरक्षित रखें और हमेशा मंदिर जी जाकर अपने जीवन को कृतार्थ करें।
'समयाभाव आज के हर वर्ग के, हर व्यक्ति का एक तकिया कलाम बन गया है । यदि उनसे पूछा जाये कि आप सुबह प्रतिदिन मंदिर जी जाते हो. स्वाध्याय(धर्म ग्रन्य) करते हो, साधु-त्यागी, संत-महात्मा, विद्वानों की संगति करते हो, प्रवचन सुनते हो आदि-आदि । तो इन सभी बातों का एक ही उत्तर मिलेगा-समय नहीं मिलता | जब धर्म कार्य के लिये समय नहीं मिलता है तो सुवह घुमने जाना, टी.वी. देखना, अखधार-मैगजीन, नोवेल आदि पढ़ना, पार्टी क्लब आदि में जाना, घंटों डाक्टर के यहाँ लाईन लगाकर इन्तजार करना । इप्स सबके लिये समय कहाँ से मिल गया? तो कहते हैं कि यह तो समय की मांग है पुकार है, आज विज्ञान का युग है, विश्व को हरेक जानकारी होना परमावश्यक है। क्या आपने कभी सोचा कि जिस संस्कृति में हमारा जन्म हुआ, उसके कितने संस्कार हमारे पास है? हमें इसकी कितनी जानकारी
जब हमें धर्म के बीज रूप संस्कार चिन्ह-प्रतीकों के प्रति श्रद्धा-आस्था नहीं होगी. तब हमारी धर्म-संस्कृति जीवित कैसे रह सकती है। फिर हम कहते फिरें कि धर्म संस्कृति का अभावह्रासं होता जा रहा है । अतः इस धर्म संस्कृति रूपी दीपक को जलाये रखने के लिये संस्कारों का तेल डालना जरूरी है, अन्यथा हम सब पर पार्यों का अन्धेरा छा जायगा । अतः आप अपनी