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मन्दिर
(१७)
संस्कार से संस्कृति
लगता है। जैसे-चित्तौड़गढ़ का किला मेवाड़ के महाराणा प्रताप की शूरवीरता का एवं उनके ही वफादार मंत्री भामाशाह की दानवीरता का परिचय देता है। झाँसी का किला महारानी लक्ष्मीबाई के पौरुष की मार दिलाता है । र दमाता की लड़ाई में लगने वाले देश भक्तों की मूर्तियाँ, देश को आजादी दिलाने में दिये गये अपने तन-मन-धन की बलिदान की आज भी हमें प्रेरणा दे रहे हैं। जब इन सब वस्तुओं, व्यक्तियों से कुछ न कुछ हमें प्रेरणा मिलती है, तब क्या इस पाषाण की प्रतिमा का हमारे ऊपर कोई प्रभाव नहीं होगा।
शावाश पत्थरों होशियारी इसको कहते हैं।
दिन तरसे थे तो पत्थर थे, तरासे तो खुदा निकने ।। यह प्रतिमा भी उन महामानवों की है, जिन्होंने अपने मनुष्यत्व का सम्पूर्ण विकास करके केवल ज्ञान ज्योति को उपलब्ध कर लिया। पुनः संसार के जीवों को हितोपदेश देकर कल्याणप्रद मार्ग प्रशस्त किया । ऐसे सर्वज्ञ, वीतरागी एवं हितोपदेशी ही जिनका लक्षण है, वे भगवान अर्थात् पूर्ण ज्ञानवान हैं। इनका जीवन चरित्र आन्तरिकता से आदर्श रूप है । अतः जिनका अन्तरंग आदर्श होगा, उन्हीं के अन्दर हम झाँककर ही अपने अंतरंग के विकारों को देख सकते
हैं।
अतः ऐसे तत्त्वदी ज्ञानीजनों की प्रतिमा जहाँ पर विशेष विधि से प्राण-प्रतिष्ठा (पंचकल्याणक) पूर्वक स्थापित होती है, उसे हम मन्दिर कहते हैं, मन्दिर भी नवदेवताओं (पंच परमेष्ठी, जिनवाणी, जिनधर्म, जिनचैत्य, जिन चैत्यालय) में से एक देवता रूप पूज्यनीय माना गया है, जिसे हम चैत्यालय भी कहते हैं। प्रतिमा प्रतिष्ठापन से पूर्व ही इन मन्दिरी का शुद्धिकरण मन्त्रों के द्वारा होता है | “मन्दिर का यथार्थ अर्थ संस्कृत के अनुसार शरण होता है। संसार के दुःखों से भयभीत प्राणियों के सहारे को 'शरण' कहते हैं। अतः प्रतिदिन मन्दिर जी आने का मतलब है-अपने आपको दुखों से छुटकारा दिलाने का उपक्रम करना।"
हमें बचपन से ही मन्दिर जी जाने की प्रेरणा दी जाती रही । चाहे वह प्रेरणा हमें धर्मगरुओं से मिलती हो या हमारे विद्वान, पण्डित, समाज, घर, कुटुम्ब, परिवार आदि से । किन्तु मन्दिर जाने से, देव दर्शन करने से हमें क्या मिल सकता है ? हमें मन्दिर कैसे आना चाहिए, देव दर्शन कैसे करना चाहिए? आदि महत्त्वपूर्ण विषयों को जब तक हम वैज्ञानिक-मनोवैज्ञानिक एवं मौलिक चिन्तन की भूमिका से धार्मिक महत्त्व को नहीं समझेंगे, तब तक हम इस धर्म की प्रथम भूमिका में होने वाली मन्दिर आने की, देव दर्शन की क्रिया की उपेक्षा कर देते हैं । अतः आज हमें इस विषय पर चर्चा शुरु करनी है कि मन्दिर जाने से पूर्व की हमारी क्या भूमिका होनी चाहिये?