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मन्दिर
(१५)
संस्कार से संस्कृति धर्म संस्कृति के दीपक को अपनी आंखों से बुझते हुए नहीं देखें । बल्कि स्वयं संस्कारवान बनकर दूसरों को भी सुसंस्कारवान बनने की प्रेरणा दें, अन्यथा इस संस्कृति के जलते टीपक में संस्कारों का तेल कम है। ऊपर से भौतिकता की अंधी आँधी का भी जोर है | कब तक यह संस्कृति का दीप जला रह सकता है? यह कल्पना आप स्वयं करें।
इन सबके जिम्मेदार हम सब हैं | यदि हम सब मिलकर दृक्ता पूर्वक संकल्प लेकर जाग्रत हो जायें तो खोये हुवे संस्कारों को हम पुनः प्राप्त कर सकते हैं । कमी है तो सिर्फ संकल्प की | जिन्होंने तीव्र संकल्प कर लिया, उनकी चेतना-शक्ति रोम-रोम से जाग जाती है। यदि वास्तव में आपको धर्म-संस्कृति के प्रति जाग्रत होना है तो संकल्प कीजियेगा । हमारे सुसंकल्प ही संस्कृति के प्रति जगा सकते हैं। क्योंकि संकल्प से शक्ति संचित होती है, शक्ति संचय से कार्य में उत्साहउमंग एवं आदर होता है । जहाँ पर उत्साह-आदर होगा, वहाँ नियम से कार्य को सफलता मिलेगी। ____ संकल्प वही है किस्में उत्साह हो, अन कार्य करने का पूर्ण समय हो, समय पर ही हर कार्य को सम्पादित करें। क्योंकि संकल्प करने से हमारा भटकता हुआ उपयोग स्थिर हो जाता है, जिससे उत्साह एवं आनन्द की अनुभूति होती है | संकल्प की भाषा में लेकिन, किन्तु, परन्तु अगर तगर-मगर जैसे शब्द नहीं होते हैं क्योंकि संकल्प की भूमि पर ही संस्कार के बीज बोये जाते हैं, उसी में धर्म संस्कृति के फल-फूल लगते हैं। अतः हम पहले-पहल केवल मन्दिर जी जाने तक का नियम बना लें, संकल्प ले लें। पुनः धीरे धीरे ही मंदिर जी सम्बन्धी अन्य जानकारियों के साथ हम भावनात्मक तरीके से जुड़ेते चले जायें । मात्र मन्दिर जी आना ही आपके अपने खोये हुए संस्कारों को पुनः स्थापित, निपित करने के लिये बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगा।
आज यस इतना ही... बोलो महावीर भगवान की.....
___जो अपने आराध्य के विषय में कुछ नहीं जानता है उसकी आराधना का कोई मूल्य नहीं है।
आप अपने भौतिक सुख के लिये धर्म के सुसंस्कारित साधनों को मत ठुकराईये अन्यथा आपका एवं आपके भौतिक साधनों का भी यही हाल होगा जो रूस में लेलिनवाद का हुआ।
- अमित बचन