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मन्दिर
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देवा - सुरेन्द्र-नर-नाग- समर्चितेभ्यः पाप-प्रणाशकर-भव्य-मनोहरेभ्यः । घंटा ध्वजादि परिवार विभूषितेभ्यो, नित्यं नमो जगति सर्व जिनालयेभ्यः ।।
संस्कार से संस्कृति
जय बोलो त्रिकाल वन्दनीय कृत्रिमा कृत्रिम जिनालयों की....... शारदे! शरव-सी शीतल .......
अबोला की हायजिनकी माता की ......
जय बोलो परम पूज्य आचार्य गुरु श्री धर्मसागर जी महाराज की..... जय बोलो अहिंसामयी विश्व धर्म की.....
आदर्श दर्पण को कहते हैं । दर्पण का कार्य हमारी मुखाकृति पर आई हुई विकृति को दिखाना है छुटाना नहीं । विकृति को जानकर छुटाने का हमें स्वयं प्रयत्न- पुरुषार्थ करना होता है । बाह्य शरीर में आई हुई विकृति को तो हम दर्पण से जान सकते हैं, परन्तु अन्तरंग की विकृति को बताने वाला क्या कोई ऐसा दर्पण है जिससे हमें अपने अन्दर के विकारों का ज्ञान हो सके ? आज के युवा हृदय की बातें बड़ी अजूची लगती है। मन्दिर जी में जाकर क्या करें? 'वहाँ तो पत्थर की मूर्ति हैं। पत्थर की उपासना से हमें क्या मिल सकता है ?
पत्थर भी यदि कभी परमात्मा बनें होते तो, हम इन्सान बनने के पहले पत्थर बन गये होते ।।
अतः मन लाफ होना चाहिये । व्यर्थ के आडम्बर से क्या लाभ? ऐसे ही बहुत से प्रश्न प्रायः कितने मनों में उठा करते हैं। धर्म एक 'समीचीन (सच्ची श्रद्धा' का विषय है और श्रद्धा गुणों के प्रति होती है। जिस प्रकार आप अपने कमरे में अपने पूज्यनीय माना जी, पिता जी. दादा जी आदि का चित्र लगाते हां। यह चित्र तो मात्र कोरे कागज पर खिंची हुई कुछ रेखाओं का समीकरण है अथवा रंगीन कैमरे से लिया गया एक सुन्दर चित्र हैं। परन्तु आप उनके गले में पुष्पमाला या हार पहनाकर, अगर यत्तियाँ दीपक जलाकर उनके प्रति आप अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं। कहते हैं कि यह हमारी माता जी हैं, पिता जी, दादा जी हैं आदि। इनमें हमें प्रेरणा मिलती है उनके समान पुरुषार्थ करने की याद आती है, उनके विनम्र स्वभाव की. उनके उज्ज्वल चरित्र की, मान, प्रतिष्ठा गौरव की ।
इसी प्रकार से अन्य अन्य चित्रों को देखकर अतीत का इतिहास हमारे सजीव होकर घूमने