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महावीर का पुनर्जन्म
और चिन्तकों ने स्वर दिया- 'एकला चलो रे।' अकेला होने का मतलब है बहुत लोग क्या कर रहे हैं, समूह क्या कर रहा है, इस तर्क के जाल से निकल जाना। किसी से कहा जाए-यह काम अच्छा नहीं है, अप्रामाणिकता का है! उत्तर मिलेगा-क्या मैं अकेला कर रहा हूं, सभी करते हैं। यह तर्क एक कवच का काम करता है। सारी बुराइयों के लिए यह तर्क त्राण बना हुआ है। इस तर्क की
ओट में व्यक्ति अपने आपको सुरक्षित कर लेता है, एक लोह कवच पहन लेता है। जो व्यक्ति इन्द्रियातीत चेतना में जीता है, वह कभी ऐसे तर्कों की पनाह नहीं लेता, बुरे तर्क की शरण में नहीं जाता। उसका चिंतन बिलकुल दूसरे प्रकार का हो जाता है।
धर्म का मूल बिन्दु है-इन्द्रियातीत चेतना का विकास। इन्द्रियों की बात उससे नीचे रह जाती है। जब तक यह बात समझ में नहीं आती तब तक धर्म की बात समझ में आ ही नहीं सकती। धर्म कहता है-खाने का संयम करो, प्राप्त को छोड़ो। एक गरीब आदमी, जिसे खाना मिलता ही नहीं है, वह क्या संयम करेगा? जिसे अच्छा भोजन मिलता है, ठंडा पेय मिलता है, मन को लुभाने वाली सारी वस्तुएं मिलती हैं, यदि उसे कहा जाए–विगय का वर्जन करो, रस परिहार करो, एकासन करो। उसका उत्तर होगा-क्यों उपवास किया जाये? यह तर्क इन्द्रिय चेतना में जीने वाले व्यक्ति का तर्क है। अतीन्द्रिय चेतना में जीने वाला संयम की बात सोचेगा, उन पदार्थों और विषयों को कम करने की बात सोचेगा। अर्थ अतीन्द्रिय चेतना का ।
आज अतीन्द्रिय चेतना को अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान आदि के साथ जोड़ा जा रहा है। अतीन्द्रिय चेतना का मतलब यह नहीं है कि अवधिज्ञान पैदा हो जाए, केवलज्ञान पैदा हो जाए। अतीन्द्रिय चेतना का अर्थ है-इन्द्रिय आसक्ति से ऊपर उठकर चलना, सोचना और व्यवहार करना। इन्द्रिय की सीमा में जो आचरण और व्यवहार होता है उससे भिन्न प्रकार का चिंतन, भिन्न प्रकार का आचरण और भिन्न प्रकार का व्यवहार करना। इस परिधि में सोचा जाए तो धर्म की बात समझ में आएगी। धर्म क्यों करना चाहिए? धर्म को कहां से पकड़ा जाए? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। धर्म का आदि बिन्दु है-राग और द्वेष से परे होना। इन्द्रियातीत चेतना में जीने वाला सबसे पहले राग पर चोट करेगा, द्वेष पर चोट करेगा। राग और द्वेष पर चोट करने का अर्थ है-समस्या की मूल जड़ पर प्रहार करना। मूल्य चोट का नहीं है
एक कहानी बड़ी मार्मिक है। मोटर खराब हो गई। जंगल का रास्ता था। स्वयं मालिक ड्राइव कर रहा था। अब जंगल में ठीक कैसे हो? वह गाड़ी से उतरकर इधर-उधर थोड़ी दूर घूमा। एक मिस्त्री बैठा काम कर रहा था। उसने कहा-'भाई! मेरी मोटर ठीक कर दो।'
मिस्त्री ने गाड़ी देखकर कहा-'सौ रुपये लूंगा।'
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