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दो भाइयों का मिलन
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मंत्री यह सुनकर सन्न रह गया। क्या आज सचमुच ही राजा के दिमाग का कोई तंतु ढीला हो गया है? एक श्लोक की पूर्ति करने वाले को आधा राज्य! मंत्री बोला-'महाराज! आप क्या कह रहे हैं?'
'कुछ नहीं, तुम बैठ जाओ।' यह कहते हुए चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त ने राजसभा में घोषणा कर दी- 'जो इस श्लोक को पूरा करेगा, उसे आधा राज्य दूंगा
आस्व दासौ मृगौ हंसौ, मातंगावमरौ तथा।। चक्रवर्ती का आधा राज्य कितना विशाल होता है! एक श्लोक की पूर्ति करने वाले को चक्रवर्ती का आधा राज्य मिलेगा, इस घोषणा से तीव्र हलचल मच गई। सबके मन में एक गुदगुदी पैदा हो गई। लोग सोचने लगे-कितना अच्छा हो कि श्लोक पूरा करें और आधा राज्य पाएं। मंत्री वरधनु के मन में भी श्लोक पूरा करने की कामना आई होगी पर श्लोक पूरा कैसे करें? अनेक लोगों ने श्लोक की पूर्ति की पर सफल न हो सके। चक्रवर्ती जिस रूप में पूर्ति चाहता था, वह संभव नहीं बन सकी।
यह घोषणा चारों ओर फैल गई। पूरे साम्राज्य में यह आधा श्लोक जन-जन के मुंह उच्चरित होने लगा।
एक दिन एक चरवाहा अपनी गायों और भैंसों को चरा रहा था। वह एक कुए की मेंढ पर खड़ा था और बार-बार इसी श्लोक को दोहरा रहा था। ऐसा योग मिला-उसके पास ही पेड़ की छांव में एक मुनि ध्यान में लीन थे। उन्होंने यह श्लोक सुना। मुनिवर पहले ही जातिस्मृति ज्ञान को उपलब्ध हो चुके थे।
ऐसा लगता है, महावीर के शासन में जातिस्मरण की प्रक्रिया बहुत प्रखर बन गई थी। जातिस्मृति ज्ञान के सैकड़ों-सैकड़ों प्रसंग आज भी उपलब्ध हैं। यदि पूरे उपलब्ध होते तो हजारों-हजारों प्रसंग बन जाते। आगमों में ऐसे प्रसंग भरे हुए हैं-अमुक व्यक्ति को जातिस्मरण हुआ और वह मुनि बन गया। अमुक व्यक्ति को जातिस्मृति उपलब्ध हुई और उसमें वैराग्य का भाव जाग गया, मूर्छा का चक्र टूट गया। महावीर की यह पद्धति रही है-जातिस्मरण कराओ, संसार की वास्तविकता का दर्शन कराओ. वैराग्य का स्रोत फट पडेगा।
मुनि चित्र को जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त था। श्लोक सुनते ही मुनि ने उसको पूरा करते हुए श्लोक का उत्तरार्ध सुना डाला। चरवाहे ने यह श्लोक-पूर्ति सुनी। उसने सोचा-यदि यह श्लोक-पूर्ति सही होगी तो मुझे आधा राज्य मिल जाएगा। वह मुनि के पास आया। उसने मुनि को प्रणाम कर निवेदन किया-'मुनिवर! आप इस श्लोक को पुनः सुनाएं।' उसने वृक्ष के एक बड़े पत्ते को उठाया और मुनिवर द्वारा बोला गया श्लोक उस पत्र पर उतार लिया। उसे लिखा ही नहीं, याद भी कर लिया। वृक्ष के पत्ते का क्या भरोसा? कब टूट जाए? वह चरवाहा एक हाथ में पत्ता लिये जा रहा है और उस याद किए हुए श्लोक
॥ जा रहा है। मन में उमंग लिए वह चक्रवर्ती की राजसभा में पहुंचा। द्वारपाल ने गेट के बाहर रोक दिया। चरवाहा बोला-'मुझे मत रोको, जाने दो।
मैं श्लोक की पूर्ति करने के लिए आया हूं।' द्वारपाल से अनुज्ञा लेकर वह भीतर Jain Education International For Private & Personal Use Only
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