Book Title: Mahavira ka Punarjanma
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 552
________________ ५३४ महावीर का पुनर्जन्म प्रतिबद्धता बहुत बड़ा खतरा है। जब व्यक्ति दो-चार से बंध जाता है तब शेष से कटे बिना रह नहीं सकता। जो बंध गया, वह फिर 'मेत्ति में सव्वभूएसु' का उच्चारण करने योग्य नहीं रहता। उसके लिए सूक्त होगा-'मेत्ति मे मम परिवारे।' उसका मैत्रीभाव सीमा में बंध जाता है। आचार्य भिक्षु ने कहा-'शिष्य मत बनाओ, किसी को अपना मत बनाओ।' यह कितनी गहरी बात है? प्रश्न होता है, यह होगा तो व्यवहार नहीं चलेगा। यदि आपसी संबंध नहीं है तो व्यवहार कैसे चलेगा? यह एक भ्रान्ति है। वास्तव में परामर्थ की भूमिका जितनी गहरी होगी, व्यवहार भी उतना ही अच्छा होगा और वह शुद्ध भूमिका पर चलेगा। स्वयं मोहित होना और दूसरों को मोहित करना-यह है मोही-भावना। ये पांच संक्लिष्ट भावनाएं हैं। जब तक मनुष्य इन भावनाओं से भावित रहता है तब तक मानसिक तनाव को मिटाने के लिए कोई भी उपाय कारगर नहीं हो सकता। यह तनाव तभी मिट सकता है जब इन भावनाओं से बचा जाए और एक लक्ष्य बनाएं कि हमें क्या पाना है? क्या बनना है? यदि मानसिक शांति और मनः समाधि पाना है तो मार्ग बदलना होगा। हम पाना चाहें शांति और साधन बनाए संक्लिष्ट-भावना को तो शांति की उपलब्धि असंभव है। असंक्लिष्ट भावना से ही समाधि प्राप्त हो सकती है। उत्तराध्ययन सूत्र का निष्कर्ष यह है कि जब हमने तत्त्व का ज्ञान किया है, सचाई को जाना है तो उसका आचरण भी करें और 'नाणस्स सारं आयारो' को क्रियान्वित करें। ज्ञान का सार है आचार और आचार यही है कि हमें संक्लिष्ट भावनाओं से हटकर असंक्लिष्ट भावनाओं में प्रवेश कर जाना है। वहां हमें प्राप्त होगी समाधि, वहां हमें प्राप्त होगी शांति। तब व्यक्ति का रोम-रोम गूंजने लगेगा और अव्यक्त ध्वनि आएगी 'मैं असमाधि से समाधि में प्रवेश कर रहा हूं।' 'मैं ज्ञान को आचार में परिणत कर रहा हूं।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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