Book Title: Mahavira ka Punarjanma
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 540
________________ ५२२ महावीर का पुनर्जन्म स्वार्थ सिद्ध करने में लगे हों तो नियंत्रण कैसे हो सकता है? नियंत्रण अपने आप नहीं होता है, क्योंकि मानवीय स्वभाव ही ऐसा है। आज जैन शासन के सामने भी कुछ समस्याएं आ रही हैं। महावीर का यह वचन बहुत महत्त्वपूर्ण है-'कयविक्कओ य महादोसो, भिक्खावित्ति सुहावहा'-क्रय-विक्रय की वृत्ति में फंसना महान दोष है, भिक्षावृत्ति सुखदायक है। जो मुनि क्रय-विक्रय के चक्कर में फंस जाता है, उसकी साधना-वृत्ति गौण हो जाती है। फिर तो वह लेखा-जोखा और खाते मिलाने में ही रह जाता हैं। हम इस बात को छोड़ दें कि गृहस्थी में कोई साधु हो सकता है या गृहस्थ-संत हो सकता है ये सारी आपवादिक विशिष्ट घटनाएं हैं। यह परम्परा नहीं हो सकती। यह सामान्य आदमी की बात नहीं हो सकती। सामान्य आदमी तो इस गृहस्थी से अलग रहकर ही साधना कर सकता है। उसमें भी कठिनाई आती है। कुछ मुनि बनकर कुंडलियां बनाते हैं, हस्तरेखा देखते हैं इससे पैसा कमाते हैं। कछेक मंत्र-तंत्र से तथा सट्टे के अंक बताकर धंधा चलाते हैं। साधु-संस्था में यदि यह वृत्ति चलती है तो गृहस्थ में यह क्यों नहीं चलेगी? कौन साधना में रस लेगा? भगवान महावीर ने जैन मनि के लिए साधना का प्रशस्त मार्ग दिया और भिक्षा-वृत्ति को अपनाने की बात कही। भिक्षावृत्ति की भी समस्याएं बहुत हैं। उसकी भी अनेक कठिनाइयां हैं। मांगना, याचना करना सरल नहीं है। दूसरे के सामने हाथ फैलाना कठिन कर्म है। अनेक व्यक्ति प्राण-त्याग देते हैं, पर दूसरे के समक्ष हाथ नहीं पसारते।। राजकुमार दीक्षा के लिए प्रस्तुत हुआ। मां ने कहा-'राजकुमार ! तुम मुनि बनना चाहते हो। क्या तुम्हें यह ज्ञात है कि रोटी के लिए घर-घर जाकर हाथ फैलाना होगा। कितनी लज्जा आएगी?' जैन मुनि बनने वाला लज्जा और याचना के परीषह पर विजय पा लेता है। तभी वह भिक्षावृत्ति को अपना सकता है। जो यह कहा गया-'भिक्खावित्ति सुहावहा' हम उसके पीछे छिपे रहस्यों को समझें और यह भलीभाति जान लें-क्रय-विक्रय की मनोवृत्ति से मुनि जितना बचेगा उतनी ही उसकी साधना प्रशस्त होगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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