Book Title: Mahavira ka Punarjanma
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 468
________________ ७४ क्या कुंजी पास में है? शब्दकोश के दो शब्द-शक्य और अशक्य जीवन से जुड़ गए हैं। मैं क्या कर सकता हूं और क्या नहीं कर सकता-इन दो शब्दों के बीच जीवन की सारी यात्रा चलती है। आदमी चुनाव करता है-मैं यह काम कर सकता हूं और मैं यह काम नहीं कर सकता। वह सोचता है-मैं चल सकता हूं पर उड़ नहीं सकता। मैं बोल सकता हूं पर मौन नहीं रह सकता। मैं खा सकता हूं पर उपवास नहीं कर सकता। शक्यता और अशक्यता-दोनों साथ-साथ चल रहे हैं। व्यक्ति का ज्यादा समय इस विकल्प में बीत जाता है कि क्या शक्य है और क्या अशक्य। किन्तु उसके लिए जो शक्य है, उसके विकास के लिए वह श्रम करता है या नहीं? यह प्रश्न मनुष्य के सामने सदा रहना चाहिए। कि शक्यं किमशक्यं मे, विकल्पे मा श्रमं कुरु। । यच्छक्यं तद्विकासाय, किं करोस्युचितं श्रमम्? विकास की कुंजी सफलता की कुंजी है। समुचित श्रम, विवेकपूर्ण श्रम विकास की कुंजी है। यह कुंजी हाथ नहीं लगती है तो बहुत कठिनाई पैदा हो जाती है। अमेरिका की घटना है। कछ लोग आफिस जाने के लिए आए। कार से नीचे उतरे। मुख्य दरवाजे पर पहुंचे। पता चला-लिफ्ट खराब है। यह देख सारे कर्मकर निराश हो गए। कुछ आदमी उसे ठीक कर रहे थे पर लिफ्ट ठीक नहीं हो पाई। कर्मकरों ने सोचा-कब तक ऐसे इंतजार करते रहेंगे? कोई रास्ता निकालो। एक व्यक्ति बोला-उपाय यह है-हम कहानियां कहते चलें। कहानियों में थकान का पता नहीं चलेगा और हम ऊपर तक पहुंच जाएंगे। यह सुझाव सबको पसंद आया। कहानी में सचमुच सरसता होती है। उससे आदमी ऊपर तक भी चला जाता है और गहराई तक भी पहुंच जाता है। एक संयोजक बन गया। व्यवस्था संपादित हो गई। कहानियों का दौर चल पड़ा। एक ओर कहानी चल रही थी दूसरी ओर सीढ़ियां चढ़ते जा रहे थे। दस मंजिल चढ़ गए। उसी समय दौड़ता हुआ चपरासी आया। उसने कहा-'महाशय! मुझे एक बात कहनी है।' संयोजक ने उसे डांट दिया-'चुप रह! अभी तुम्हारा नंबर नहीं है।' चपरासी मौन हो गया। लोग आगे बढ़े। तीसवीं मंजिल पर पहुंच गए। चपरासी ने एक बार फिर अपनी बात कहने का प्रयत्न किया-'महाशय! मैं कुछ कहना चाहता हूं।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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