Book Title: Mahavira ka Punarjanma
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 492
________________ ४७४ महावीर का पुनर्जन्म देखकर एक तोत बोलता है-स्वागतम्! स्वागतम्! आओ! बैठो! स्वागत है! स्वागत है और दूसरा तोता बोलता है-आओ! आओ! मारो! लूटो! यह संगत का प्रभाव है, वातावरण का प्रभाव है। पुराना शब्द है सत्संग और कुसंग। आधुनिक वाक्य हैं-वातावरण, परिवेश और पर्यावरण। यह जीवन की व्याख्या का एक आधार है। जीवन की व्याख्या का दूसरा आधार है-वंशानुक्रम। इसके द्वारा बहुत सारे प्रश्नों को समाहित किया गया है किन्तु अनेक प्रश्न आज भी अनुत्तरित बने हुए हैं। ऐसे अनेक प्रश्न हैं, जिनका मनोविज्ञान के पास कोई उत्तर नहीं है। उनके समाधान कर्मविज्ञान में हैं। कठिनाई यह है-कर्मविज्ञान धार्मिक लोगों के पास है, साइकोलोजी और हेरीडीटी का विज्ञान वैज्ञानिकों के पास है। वैज्ञानिकों में यह क्षमता है कि वे अपनी बात आत्म-विश्वास के साथ प्रस्तुत करते हैं और उसे लोगों के हृदय में उतार देते हैं। अध्यात्म के लोग इस मामले में कुछ सुस्त हैं इसीलिए कर्मविज्ञान जैसा महत्त्वपूर्ण सिद्धांत आज भी अगम्य और अमान्य सा बना हुआ है। ___ कर्मविज्ञान में जो गहराइयां हैं, उनके सामने मनोविज्ञान बौना बना हुआ है। परिस्थिति विज्ञान उसके सामने कुछ भी नहीं हैं। किन्तु समस्या यह है-कर्मविज्ञान को जिस रूप में प्रस्तुत करना चाहिए, दुनिया के सामने रखना चाहिए, उसका वह रूप प्रस्तुत नहीं हो पाया है। आज कुछ ऐसा हो गया-एक छोटा आदमी आकाश को छू रहा है, हिमालय पर चढ़ा हुआ है और एक विशाल और विशिष्ट व्यक्ति नीचे खड़ा हुआ उसे टुकुर-टुकुर देख रहा है। कर्मविज्ञान आज इस स्थिति से गुजर रहा है। समाधान है कर्मविज्ञान कर्मविज्ञान एक महत्त्वपूर्ण विज्ञान है। उसके द्वारा हम अपने समग्र जीवन की व्याख्या कर सकते हैं। हमारे सामने अनेक प्रश्न हैं-एक व्यक्ति लम्बा क्यों बना? एक व्यक्ति नाटा क्यों रह गया? एक शरीरविज्ञानी कहेगा-ग्रन्थियों के नाव असंतुलित हैं इसलिए ऐसा हो गया। एक आदमी का गला अच्छा है। उसके स्वरों में मधुरता है। एक व्यक्ति के स्वर मधुर नहीं होते। ऐसा क्यों होता है? एक व्यक्ति ऐसा है जिसका वचन आदेय होता है। उसकी बात को कोई टाल नहीं सकता। उसका कोई भी कार्य अधूरा नहीं रहता। एक व्यक्ति के कथन को कोई सम्मान नहीं मिलता। कोई भी व्यक्ति उसकी बात को स्वीकार नहीं करता। दो व्यक्तियों में यह अन्तर क्यों? इन प्रश्नों का समाधान न शरीरविज्ञान के पास है, न मनोविज्ञान के पास है। इन सारे प्रश्नों को कर्म-शास्त्र के संदर्भ में समाहित किया जा सकता है। एक कर्म है नामकर्म। वह इन सारें भेदों के लिए जिम्मेवार होता है। कर्म-शास्त्र में नामकर्म की तुलना कुम्हार के साथ की गई । जैसे कम्हार अनेक प्रकार के घड़े बनाता है, नाना रूपों की सृष्टि करता है वैसे ही नामकर्म के कारण व्यक्तित्व के अनेक रूप बन जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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