Book Title: Mahavira ka Punarjanma
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 496
________________ ४७८ महावीर का पुनर्जन्म समाप्त नहीं होती वैयक्तिकता कर्म नितांत वैयक्तिक बात है। बहुत सारी बातें समुदाय से मिलती हैं, वातावरण से मिलती हैं, पीढ़ी-दर-पीढ़ी संक्रांत होती चली जाती हैं, पैतृक विरासत से उपलब्ध होती है, किन्तु कुछ बातें नितांत वैयक्तिक होती हैं। सामुदायिकता और वैयक्तिकता को एक नहीं माना जा सकता। कहा जाता है-आज समाजवादी भावना ने वैयक्तिकता को समाप्त कर दिया। सचाई यह है-वैयक्तिकता कभी समाप्त नहीं होती और इसीलिए एक अन्तर्द्वन्द्व चल रहा है। यदि वैयक्तिकता की व्याख्या वैयक्तिकता के संदर्भ में की जाए और सामुदायिकता की व्याख्या सामुदायिकता के आधार पर की जाए तो जीवन को सही ढंग से समझा जा सकता है अन्यथा जीवन की विविधता को समझ पाना संभव नहीं है। व्यक्ति में ज्ञान का अन्तर है, जागरूकता और शक्ति का अन्तर है। किसी मनुष्य में अप्रतिम शक्ति जाग जाती है और किसी व्यक्ति की शक्ति व्यवहित बनी रहती है। एक मनुष्य इतना शक्तिशाली होता है कि वह अकेला हजारों व्यक्तियों को परास्त कर देता है। भरत और बाहुबली में युद्ध होने वाला था। भरत ने सोचा-मेरी शक्ति के प्रति संदेह पैदा हो गया है। मेरे सेनापति के मन में भी यह संदेह है-'बाहुबली ज्यादा शक्तिशाली है और भरत कमजोर है। हम कैसे जीत पाएंगे? यदि आसपास में ऐसा वातावरण हो तो कैसे काम चलेगा? भरत ने सेनापति से कहा-तुम्हारे मन में मेरी शक्ति के प्रति संदेह है लेकिन तुमने मेरी शक्ति को अभी तक जाना नहीं है। भरत ने उनके संदेह के निवारण के लिए एक उपक्रम सोचा। भरत बोले-'तुम एक बहुत विशाल सांकल ले आओ।' सांकल आ गई। भरत ने आदेश दिया-'इस सांकल से मेरा एक पैर बांध दो।' सेनापति यह सुनकर स्तब्ध रह गया। भरत ने अपने पैर को आगे रखते हुए पुनः आदेश दिया-'इसे सांकल से बांध दो।' सैनिक को भरत के आदेश का पालन करना पड़ा। भरत का अगला आदेश था-'जितने भी योद्धा हैं, वे आगे आएं, इस सांकल को पकड़ कर खींचें और मेरे पैर को हिलाएं।' कहा जाता है-हजारों बड़े-बड़े विश्रुत योद्धा आगे आए। उन सबने मिलकर सांकल को जोर से खीचा। वे सारे पसीने से लथपथ हो गए, थककर चूर हो गए किन्तु भरत के पैर को एक इंच भी नहीं खिसका पाए। यह शक्ति कहां से आती है? यह शक्ति बाहर से नहीं, व्यक्ति के भीतर से उद्भूत होती है। एक सिद्धांत बना अनन्त चतुष्टयी का। प्रत्येक आत्मा में अनन्त ज्ञान है, अनन्त दर्शन है, अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति है। प्रश्न होता है-कहां है अनन्त आनंद? एक सामान्य सी बात में मूड़ बिगड़ जाता है। व्यक्ति के सामने सामान्य सी कठिन परिस्थिति आती है, व्यक्ति डर जाता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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