Book Title: Mahavira ka Punarjanma
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 517
________________ लेश्या सिद्धान्त : ऐतिहासिक अवलोकन सकता है - पार्श्व की परंपरा से, पूर्वज्ञान की पंरपरा से, जो लेश्या का सिद्धान्त चला आ रहा था, महावीर ने उसे अपनाया । वस्तुतः पूर्वो का ज्ञान इतना विशाल था कि उसमें दुनिया का सारा ज्ञान समाविष्ट था । लेश्या का सिद्धान्त पार्श्व की परंपरा से चला आ रहा था और पार्श्व के ज्ञान की सारी विरासत महावीर की परंपरा को मिली, यह कहने में कोई कठिनाई नहीं होतीं किन्तु इसके अतिरिक्त किसी अन्य परंपरा से वैदिक, बौद्ध या आजीवक परंपरा से इस सिद्धान्त को लिया, ऐसा नहीं कहा जा सकता। हालांकि इन सब परंपराओं में रंगों का वर्णन मिलेगा, क्योंकि रंगों के आधार पर कुछ न कुछ कहा गया है किन्तु लेश्या का जितना विकास जैन परंपरा में हुआ है उतना किसी अन्य परंपरा में नहीं हुआ। यह बात भी स्वीकार की जा सकती है— लेश्या एवं कर्म—ये दो सिद्धान्त ऐसे हैं, जिन पर जैनों का एकाधिकार रहा है और ये जैनों की मूल देन हैं । लेश्या - आभामण्डल हमारा एक दर्पण है, जिसमें व्यक्ति अपने आपको देख सकता है, अपने विचारों और भावनाओं को देख सकता है, अपने आचार और व्यवहार को देख सकता है । ४६६ महान दार्शनिक और तत्त्ववेत्ता सुकरात का चेहरा बहुत भद्दा था फिर भी वे दर्पण में बहुत बार अपना चेहरा देखते रहते थे। जब जब सुकरात दर्पण के सामने खड़े होकर अपना चेहरा देखते, उनके शिष्य हंसने लगते किन्तु सुकरात को कुछ नहीं कह पाते । गुरु की कई बातें ऐसी होती हैं, जो शिष्यों की समझ में नहीं आतीं किन्तु गुरु से पूछने का साहस भी नहीं होता। कुछ व्यक्ति श्रद्धा से उस बात को स्वीकार कर लेते हैं किंतु सबमें श्रद्धा भी गहरी नहीं होती। ऐसे लोग पीछे से हंसते हैं या आलोचना करते हैं । उनमें इतनी क्षमता नहीं होती कि वे गुरु से ऐसे विषयों पर पूछ सकें और मन में उठ रहे विकल्पों को दबाना उनके लिए संभव नहीं होता इसलिए उनके मन की बात कहीं न कहीं आलोचना के रूप में प्रस्फुटित हो जाती है । यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है । यह अलग बात है कि व्यक्ति को ऐसा नहीं करना चाहिए। सुकरात का बार-बार दर्पण में देखना शिष्यों के लिए एक समस्या बन गया। वे आपस में बतियाते - इतना महान तत्त्वज्ञानी भद्दे चेहरे को दर्पण में बार-बार क्यों देखता है? चेहरा सुन्दर हो तो देखने में मजा आए। ऐसा भद्दा चेहरा जिसे आदमी दूसरी बार भी नहीं देखना चाहे और ये बार-बार देखे जा रहे हैं। क्यों? ऐसे ही एक दिन सुकरात शीशा देख रहे थे। कुछ शिष्यों की हंसी एक साथ फूट पड़ी। सुकरात उनकी प्रकृति को जानते ही थे । सुकरात ने कहा- 'मैं शीशा देख रहा हूं इसलिए तुम हंस रहे हो ।' तुम सोचते हो - 'मैं भद्दा हूं फिर शीशा क्यों देखता हूं, पर तुम यह नहीं जानते - सुन्दर आदमी को शीशा देखने की जरूरत ही नहीं। जो स्वयं सुन्दर है, वह शीशा किसलिए देखे ? शीशा देखने की जरूरत तो उसे है, जिसका चेहरा भद्दा है । मैं शीशे में यह देखता हूं- मेरा चेहरा भद्दा है पर ऐसा काम न हो जाए, जिससे मेरा चेहरा और भी अधिक भद्दा बन जाए। मैं यह देखता हूं-कहीं मेरा ऐसा आचरण और व्यवहार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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