Book Title: Mahavira ka Punarjanma
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 516
________________ ४६८ महावीर का पुनर्जन्म दूसरे को अपने से कम बुद्धिमान मानता है प्रत्येक आदमी सोचता है-मैं सोलह आना सहीं हूं। सामने वाला व्यक्ति ठीक नहीं है। भोला आदमी भी दूसरों की त्रुटि निकालने में हाशियार होता है और बुद्धिमानी का ठेका स्वयं लिए रहता है। सांप ने कहा- 'मैं सौ तरह की बुद्धियां जानता हूं।' सैला बोला-'मैं पचास तरह की बुद्धियां जानता हूं।' सियार ने कहा- 'मैं तो न सौ बुद्धियां जानता हूं और न पचास। मुझमें तो एक ही बुद्धि है। जब समस्या आती है तब उस बुद्धि को काम में ले लेता हूं।' बात समाप्त हो गई। कुछ दिन बाद अचानक जंगल में आग लग गई। आग सारे जंगल में फैलने लगी। सांप आग से बचकर निकल नहीं सका। सैले का चलना तो और भी कठिन था। कांटो का भार लिए दौड़ना कब संभव था? दोनों आग में जलकर भस्म हो गए। सियार बहुत तेजी से दौड़ा और दौड़ता चला गया। जंगल के समाप्त होने पर खुले मैदान में पहुंचकर उसने राहत की सांस ली। वह जंगल की भभकती आग को देखकर बोल उठा सौ की होगी सींधड़ी, पचासां की दड़ी। आछी म्हारी एकली, लम्बे खाल खड़ी।। जिसमें सौ बुद्धियां हैं, वह रस्सी जैसा पड़ा है। जिसमें पचास बुद्धियां है, वह दड़ी (गेंद) जैसा गोल बन गया है। मेरी अकेली बुद्धि ही अच्छी है, जिससे मैं सकुशल जीवित खड़ा हूं। लेश्या का सिद्धान्त एक ऐसा सिद्धान्त है, एक ऐसी बुद्धि है, जिसके सामने सारी बुद्धियां धरी रह जाती हैं। अध्यात्म का ऐसा कोई सिद्धान्त नहीं है, जो लेश्या के बिना एक कदम भी चल सके लेश्या के बिना कोई ज्ञान नहीं होता। जातिस्मरण ज्ञान का प्रश्न हो अथवा अवधिज्ञान या केवलज्ञान का प्रश्न, लेश्या के बिना यह संभव नहीं है। ज्ञान का अर्थ पुस्तकीय ज्ञान नहीं है। पुस्तकों के ज्ञान के साथ लेश्या का कोई संबंध नहीं है। वह ज्ञान, जो आत्मसमुत्थ है, आत्मा से उपजता है, उसका संबंध है लेश्या के साथ। आत्मा के साथ जो ज्ञान पैदा होता है, उसके साथ लेश्या का होना जरूरी है। लेश्या शुद्ध होगी तो वह ज्ञान होगा, लेश्या अशुद्ध होगी तो वह ज्ञान पैदा नहीं होगा। हमारा जितना क्षायोपशमिक भाव है, क्षायिक भाव है, सबके साथ लेश्या का संबंध है। औदयिक भाव के साथ भी उसका संबंध है। आयष्य का बंध और मत्य-दोनों लेश्या के साथ जुड़े हुए हैं। जैन आगमों में कहा गया-जल्लेसे मरई तल्लेसे उववज्जई-व्यक्ति जिस लेश्या में मरेगा, उसी लेश्या में उत्पन्न होगा। जैन दर्शन में लेश्या का सिद्धान्त बहुत व्यापक रहा है। यदि जैन आगमों से लेश्या के सिद्धान्त को निकाल दिया जाए तो उसका एक बहुत मूल्यवान भाग कम हो जाए, जैनों आगमों का पचास प्रतिशत भाग ही अवशिष्ट रह पाए। जैन धर्म की मूल देन ऐतिहासिक दृष्टि से यह मानने में कठिनाई होती है कि महावीर ने लेश्या का सिद्धान्त किसी से लिया है। कहीं से लिया है, यह मानें तो कहा जा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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