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किसने कहा मन चंचल है?
शिष्य आचार्य की सन्निधि में उपस्थित हुआ। उसने विनम्र प्रणाम कर निवेदन किया- 'गुरुदेव! यह सुना जा रहा है-मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। क्या यह सच है? क्या एक मन को जीतने से सब कुछ जीत लिया जाएगा? क्या मन इतना शक्तिशाली है, इतना स्वतंत्र है? क्या वह ईश्वर है? क्या वह सब कुछ करने में समर्थ है?'
__ आचार्य ने कहा-'वत्स! जो कहा जा रहा है, उसे असत्य कैसे कहा जा सकता है? पर वह पूरी सचाई नहीं है। मन स्वतंत्र नहीं है, वह चलाने वाला नहीं है। मन स्वयं दूसरे के द्वारा संचालित है।'
आचार्य ने अपनी बात को स्पष्ट करते हुए कहा-'जैसा कर्म का विपाक होता है, वैसा भाव होता है और जैसा भाव होता है वैसा मन होता है। मन भाव के अधीन है। वह भाव के अनसार चलता है'
विपाकः कर्मणो यादृग्, यादृग् भावः समाश्रितः।
मनः प्रवर्तते ताग, भावाधीनं मनो यतः।
मन को चलाने वाले कारण अनेक हैं। कर्मशास्त्र की दृष्टि से कर्म का विपाक मन को चलाता है। जैसा कर्म का विपाक होगा वैसा मन बन जाएगा। यदि मोहनीय कर्म का विपाक आया है तो मन क्रोध अथवा अहंकर से भरेगा, भय या घृणा करेगा। वह कभी उछलने लग जाएगा, कभी एकदम नीचे बैठ जाएगा। कभी उत्कर्ष कभी अपकर्ष, कभी उच्चता कभी हीनता। इन सबका कारण है कर्म का विपाक। त्रिदोष और मन
आयुर्वेद की दृष्टि से विचार करें। शरीर में तीन दोष माने जाते हैं-वात, पित्त और कफ। जब शरीर में वायु का प्रकोप होगा तब मन में जड़ता व्याप्त हो जाएगी, मन अस्थिर हो जाएगा, चंचल बन जाएगा। यदि मन चंचल अधिक हो तो समझ लेना चाहिए-शरीर में वायु कुपित हो गई है। वायु का प्रकोप बढ़ेगा तो व्यक्ति डरने लग जाएगा, उसे अकारण भय सताएगा। जब शरीर में पित्त का प्रकोप होता है तब व्यक्ति को क्रोध सताने लगता है, चंचलता
और काम-वासना बढ़ जाती है। जब कफ का प्रकोपं होता है, स्नेह का भाव प्रबल बन जाएगा, हंसी बहुत आने लग जाएगी, मूढ़ता और शोक की स्थिति भी तीव्र बनेगी। जिस समय, जिस ऋतु में जिसका प्रकोप अधिक होता है, मन उसके साथ काम करने लग जाता है। शरीर में तीनों प्रकार के दोष निरन्तर रहते हैं। किस ऋतु में कफ का प्रकोप ज्यादा होता है, किस ऋतु में वायु और
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