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पहले कौन?
यह संसार एक वलय है। पूछा जाए - 'इसका आदि बिन्दु कहां है? वृत्त या गोलाकार पदार्थ का प्रारम्भ कहां है?' इस प्रश्न को समाहित नहीं किया जा सकता । पुराने दार्शनिकों ने इस प्रश्न का उत्तर गोलमटोल भाषा में दिया है । यह प्रश्न न जाने कब से पूछा जाता रहा है- पहले कौन? आज भी यह अज्ञात है । पहला कवि कौन? पहला दार्शनिक कौन? पहला लेखक कौन? पहला धार्मिक कौन? किसी को इसका पता नहीं है। उपनिषद् के ऋषियों ने सृष्टि के बारे में बहुत खोज की। उन्होंने इस प्रश्न का हल ढूंढना चाहा । समाधान की यात्रा में अनेक मत प्रस्तुत हुए। किसी ने कहा - 'पहले जल था ।' किसी ने कहा - 'पहले अग्नि थी ।' महावीर ने इस प्रश्न का विचित्र उत्तर दिया। उन्होंने पहले और बाद में – इन दोनों बिन्दुओं को नहीं पकड़ा। एक नया सूत्र देते हुए महावीर ने कहा - ' - 'अपश्चानुपूर्वीन पहले और न बाद में ।' वलय में पहले पीछे होता ही नहीं है ।
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एक प्रश्न है- पहले बीज बना या वृक्ष ? यदि कहा जाए - 'पहले बीज पैदा हुआ तो प्रश्न होगा - बीज आया कहां से? यदि कहा जाए - 'पहले वृक्ष बना तो प्रश्न होगा- बीज के बिना वृक्ष कैसे पैदा हुआ? यह एक वलय है, एक चक्र है। बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज पैदा होते रहते हैं । ये दोनों युगपत् हैं, पहले भी हैं, पीछे भी हैं । दो शब्द हैं-क्रम और युगपत् । एक वस्तु क्रम से होती है और एक अक्रम से होती है । जिसमें कोई क्रम नहीं होता, जो एक साथ होता है, वह युगपत् कहलाता है। चाहे बीज या वृक्ष को लें, मुर्गी या अण्डे को लें, जीव या कर्म को लें। क्रम की बात संगत प्रतीत नहीं होती। कहा जाए-कर्म पहले था तो प्रश्न होगा—आया कहां से? कहा जाए-जीव पहले था तो प्रश्न होगा - वह कर्म से बन्धा कैसे ? इस प्रश्न का कोई समाधान नहीं हो सकता ।
जीव और कर्म -- दोनों का एक वलय है। इसका मुंह कभी खोजा नहीं जा सकता, इसका प्रारम्भ कभी बताया नहीं जा सकता। एक लम्बी वस्तु का पहला सिरा भी होता है और अन्तिम सिरा भी, किन्तु वलय का न पहला सिरा होता है और न अन्तिम सिरा । एक प्रश्न था - दुःख आया कहां से? पहले दुःख पैदा हुआ या दुःख को पैदा करने वाला पैदा हुआ। क्या वह धरती से निकला है ? उत्तर की भाषा में कहा गया- अत्तकड़े दुक्खे -दुःख मनुष्य ने पैदा किया है । कोई भी समझदार आदमी दुःख को क्यों पैदा करेगा ?
उत्तराध्ययन सूत्र में दुःख एवं दुःख-मुक्ति का महत्त्वपूर्ण सूत्र प्राप्त होता
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