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दो परंपराओं के बीच सीधा संवाद
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मार्ग जानने। आपने यह क्या किया?' गुरु ने मुस्कराते हुए कहा-'वत्स! तुम्हारी कसौटी की है।' शिष्य ने पूछा-'गुरुदेव! यह क्या कसौटी है?' गुरु ने कहा-'जब मैंने तुम्हारा नाक व मुंह बन्द किया तब कैसा लग रहा था?' शिष्य बोला-'उस समय ऐसी छटपटाहट और अकुलाहट हुई कि मैं बता नहीं सकता।' गुरु ने कहा-'वत्स! जिस दिन ऐसी अकुलाहट और छटपटाहट तुम्हारे मन में पैदा होगी, उस दिन साधना का मार्ग मिल जाएगा।' संवाद दो परम्पराओं के बीच
हजारों लोग प्रवचन सुनते हैं, सत्-साहित्य पढ़ते हैं, साधना के महत्व को जानते हैं पर उन सबमें अभीप्सा जागती नहीं है। विरल व्यक्तियों में ही यह अभीप्सा जागती है। भृगुपुत्रों के मन में ऐसी ही अभीप्सा जागी और वे विरक्त हो गए।
राजपुरोहित भृगु और उनके दो पुत्रों के बीच लम्बा संवाद चला। संवाद केवल पिता-पुत्र के बीच ही नहीं, दो परम्पराओं के बीच था। पिता वैदिक धर्म से प्रभावित थे और पुत्र श्रमण परम्परा से। संवाद में वे अपनी-अपनी परम्पराओं का प्रतिनिधित्व कर रहे थे।
राजपुरोहित भृगु ने कहा-'तुम ब्राह्मण-कुल में पैदा हुए हो इसलिए वेदों को पढ़ो।'
पुत्र बोले-'पिताजी! आप जानते हैं-निर्वाणवादी के लिए वेद त्राण का कारण नहीं होते।'
- वेदों का बड़ा महत्त्व है। वह बहुत बड़ी ज्ञानराशि है। आज भी भारतीय साहित्य में वेद को प्राचीन साहित्य माना जाता है। गीता में कहा गया है-वेदों में तीन गुणों का वर्णन मिल जाएगा। समाज के महत्त्वपूर्ण सूत्र उसमें उपलब्ध हैं। राष्ट्र की व्यवस्था के सूत्र भी उसमें हैं। विज्ञान के बहुत से संकेत-सूत्र हैं किन्तु निर्वाण की बात वेद नहीं बता सकते। मौन सम्मति बन गया
भृगुपुत्रों ने अपने पिता की बातों से असहमति व्यक्त करते हुए कहा-'आप कहते हैं-ब्राह्मण-भोज करो। ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा दो। भोग भोगो, संतान पैदा करो। ये सारी बातें अंधकार की ओर ले जाने वाली हैं, बन्धन का हेतु हैं। हम उस मार्ग पर बढ़ना चाहते हैं, जो मोक्ष का हेतु है। यदि आप निर्वाण प्राप्ति में सहायक होने वाली कोई बात बताएं तो हम उसे मानने को तैयार हैं। आप हमें भोग भोगने की प्रेरणा दे रहे हैं। क्या आप नहीं जानते-भोग क्षणिक सुख देते हैं, बहुत काल तक दुःख देते हैं। क्या कोई पिता अपने पुत्र को ऐसा प्रलोभन दे सकता है, जिसमें सुख कम हो और दुःख अधिक? जो थोड़ा सुख देकर बहुत दुःख देने वाले हैं, उन काम-भोगों में हमें
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