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महावीर का पुनर्जन्म
चाहते हैं सुख पाने के लिए। वर्तमान में जो सुख मिला है उसे छोड़ कर अप्राप्त की आशा करना समझदारी है? उसने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए एक उदाहरण प्रस्तुत किया
___एक किसान अपने ससुराल में गया । ससुराल में ईख के रस के साथ चावल बनाए गए। किसान ने चावल खाए। उसे बड़ा अच्छा लगा। ईख का रस पीया, बड़ा अच्छा लगा, ईख चूसे, अच्छा लगा। उसने पूछा-ये क्या हैं? कहां होते हैं? ससुराल वालों ने उसे ईख के खेत दिखाए, बीज बोने से लेकर काटने तक की सारी विधि समझाई। उसने सारी बातें समझ लीं। लौटते समय वह साथ में ईख के बीज ले आया। महीना था भादवा का। उसने घरवालों से कहा-इस सारे बाजरे को उखाड़ दो, इस खेत में ईख बोना है। घरवालों के मना करने पर भी उसने बलपूर्वक खड़ी बाजरी उखड़वा दी और ईख बो दिया। ईख को पूरा पानी चाहिए। पर वहां कहां था पानी! थोड़े दिन ईख के डंठल खड़े रहे फिर सूखने लगे और सूख ही गए। वह बहुत पछताया। उसने कहा-मैंने कितनी मूर्खता की, खड़ी फसल को उखाड़ा भविष्य की आशा के लिए। ईख भी नहीं मिला और बाजरा भी चला गया। पत्नी ने कथा का उपसंहार करते हुए कहा-पतिदेव! आपको भी वैसा ही पश्चात्ताप करना पड़ेगा, जैसा उस किसान को करना पड़ा था। व्यापक है परलोक का प्रश्न
इन्द्रिय चेतना में जीने वाले व्यक्ति का चिन्तन इससे भिन्न नहीं हो सकता। वह इन्द्रिय सीमा में ही सारी बात सोचता है। उससे बाहर की कोई बात वह सोच ही नहीं सकता।
हत्थागया इमे कामा कालिया जे अणागया। ___ को जाणइ परे लोए, अत्थि वा नत्थि वा पुणो।।
काम-भोग प्रत्यक्ष हैं, मेरे सामने हैं, हाथ में आए हुए हैं। जो आने वाले हैं, वे कालिक हैं। न जाने कब आएंगे? कौन जानता है-परलोक है या नहीं?
यह चिन्तन न जाने कितने व्यक्तियों के मस्तिष्क में चक्कर लगाता होगा। कभी-कभी साधु-संन्यासी के मन में भी यह प्रश्न उठ जाता होगा-इतनी तपस्या कर रहे हैं, साधना कर रहे हैं, ग्राम-अनुग्राम विहार कर रहे हैं, घर-बार छोड़कर अकिंचन होकर चल रहे हैं, सर्दी-गर्मी सहते हैं और भी न जाने क्या-क्या सहते हैं। आगे कुछ है या नहीं? क्या होगा? जब-जब साधक की चेतना इन्द्रियों के निकट जाती है तब-तब यह प्रश्न उभरता है। ऐसी स्थिति में दूसरा प्रश्न उभरता ही नहीं। यह प्रश्न इतना व्यापक बना हुआ है कि हर व्यक्ति के मन में उभर आता है। धरती भी नहीं झेल पाएगी
आचार्य डालगणी जोधपुर विराज रहे थे। मुसद्दी बच्छराजजी सिंघी डालगणी के पास आए। वे विचारों के पक्के दार्शनिक थे। डालगणी के प्रति उनकी श्रद्धा थी। उन्होंने कहा-महाराज! आप लोच करवाते हैं, पैदल चलते हैं,
सर्दी-गर्मी सहते हैं, भूख-प्यास सहन करते हैं। इस शरीर को भारी कष्ट देते हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only
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