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दोय मिल्यां दुःख होय .
जाए-वह आत्मा है? और उसे कहा जाए-उत्तर केवल हां या नां में देना है। वह इसका उत्तर नहीं दे पाएगा। पूछा जाए-वह पुद्गल है? उसके लिए इसका उत्तर भी हां या ना में देना संभव नहीं हो सकता।
न्यायाधीश ने मुल्ला नसरूद्दीन से कहा-'मुल्ला! तुम बड़े होशियार आदमी हो, बड़े चतुर और चालाक हो, गलती करके भी बच जाते हो। अतः तुम मेरी एक बात का हां या ना में उत्तर दो।'
मुल्ला बोला-'जज महोदय! ऐसा कभी नहीं हो सकता। मुझे अपनी सफाई में बहुत बातें कहनी पड़ेंगी।'
'केवल हां या ना में उत्तर देना होगा।' 'मेरे लिए यह संभव नहीं है।' 'यह कैसे नहीं हो सकता?' । 'क्या आप किसी प्रश्न का उत्तर हां या ना में दे सकते है?' 'हां दे सकता हूं।' 'पहले आप मेरे एक प्रश्न का केवल हां या ना में उत्तर दें।' 'बोलो! तुम्हारा क्या प्रश्न है?' 'क्या आपने अपनी पत्नी को पीटना छोड़ दिया है?'
बेचारा जज फंस गया। अगर वह कहे-पीटना छोड़ दिया है तो इसका मतलव होगा, पहले पीटता था और वह कहे-नहीं छोड़ा तो मतलब होगा-अभी भी पीटता जा रहा है।
न्यायाधीश ने कहा-'इसका उत्तर हां या ना में सम्भव नहीं है।'
मुल्ला बोला-'मैंने तो पहले ही कहा था-केवल हां या ना में हर प्रश्न का उत्तर संभव नहीं हो सकता।' द्वन्द्वात्मक व्यक्तित्व
प्रश्न को समाहित करने के लिए विवेचनात्मक शेली का आश्रय लेना पड़ता है। जब इस शैली का सहारा लिया जाएगा तभी कोई उत्तर संभव बन पाएगा। आत्मा और पुद्गल के विषय में भी इसी शैली से उत्तर दिया जा सकता है। मनुष्य न केवल पुद्गल है और न केवल आत्मा है किन्तु दोनों का जोड़ा है। आत्मा और पुद्गल का यह योग अनादि काल से है। व्यक्ति अकेला तब बनेगा जब यह शरीर छूट जाएगा। उस अवस्था में ही अकेलेपन की बात प्राप्त होगी।
इस द्वन्द्वात्मक व्यतित्व में अकेलेपन की बात सोचना कठिन है। द्वन्द्वात्मक व्यक्तित्व है इसलिए अकेलेपन की बात कही गई, जिससे द्वंद्व मिटता चला जाए। जिस दिन यह द्वन्द्व ही होगा उस दिन व्यक्ति वहां पहुंच जाएगा, जहां न कोई द्वन्द्व है और न क दुःख है। इस अपेक्षा से यह कहना संगत है-'दोय मिल्यां दुःख होय।' दो मिले हैं, इसलिए दुःख हो रहा है। यदि दो न हो तो कोई दुःख नहीं होता।
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