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अपराधान्निवर्तेत, प्रायः लोको न चिन्त्यते ।
दण्डं कथं प्रवर्तेत, चित्रं चिन्तेति वर्तते ।
अपराध से लोक निवृत्त कैसे हो? अपराधी कैसे न बने, इस बारे में प्रायः चिंतन नहीं होता । व्यक्ति सोचता है— दंड कैसे चालू रहे। इस ओर व्यक्ति का ध्यान केन्द्रित है । यह आश्चर्य की बात है ।
चिंतन का यह विपर्यास अपराधों की समाप्ति में बाधा बना हुआ है । पुलिस का सिपाही अपने घर में सो रहा था। रात का समय था। चोर सिपाही के घर में घुस गया। पत्नी जाग गई। उसने कहा- घर में चोर घुस गया है, आप उठें ।
सिपाही ने कहा- 'कितने बजे हैं?"
'चार बजे हैं।'
'अभी मेरी ड्यूटी का समय नहीं है।'
'देखते क्या हो, संदूक उठाकर ले जा रहा है ।'
'अभी तो नहीं ले गया?'
महावीर का पुनर्जन्म
'हां! ले तो नहीं गया पर ले जाने वाला ही है ।'
'तुम जानती नहीं हो । मेरा कर्त्तव्य क्या है? जब तक चोर चोरी न कर ले, तब तक मैं उसे पकड़ नहीं सकता ।'
अपराध की चिरजीविता का कारण
अपराध न हो तब तक दंड की बात नहीं हो सकती। पहले अपराध होना चाहिए। यह चिन्तन का ऐसा कोण है, जो दंड को जीवित बनाए रख रहा है। आज केवल दंड की भाषा में सोचा जा रहा है। अपराध से व्यक्ति कैसे निवृत्त हो, इस ओर समाज का ध्यान केन्द्रित नहीं है । किन्तु दंड कैसे प्रवृत्त हो, यह चिन्ता मनुष्य के मानस में पल रही है। उसका विश्वास जितना दंड में है उतना न्याय में नहीं है । यदि न्याय चालू हो जाए तो दंड क्यों चिरजीवी रहेगा? कैसे श्वास लेगा? वह अपने आप समाप्त हो जाएगा। एक ओर न्याय है तो दूसरी ओर दण्ड है । दण्ड में जितना विश्वास है उतना न्याय में हो जाए तो दण्ड अपनी मौत मर जाए
विश्वासो वर्तते दण्डे, न्याये तावान्न विद्यते ।
यदि न्यायः प्रवृत्तः स्याद्, दण्डः किं चिरमुच्छ्वसेत् ।।
एक नया चिंतन दिया गया - दंड की भाषा में मत सोचो किन्तु न्याय की भाषा में सोचो, न्याय की भाषा में बोलो। आज की स्थिति है— जो अपराध नहीं करने वाला है, वह दंड पा रहा है और जो अपराधी है वह बच रहा है। जो अपराध करने वाला है, वह सही सलामत और बेदाग निकल जाता है और जो अपराध नहीं करने वाला है, वह दंड का भागी बन जाता है । यह वर्तमान युग की कटु सचाई है। जब तक न्याय की भाषा में चिंतन नहीं होगा, अपराध की समस्या का समाधान नहीं हो सकेगा।
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