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महावीर का पुनर्जन्म
अवकाश मिल गया। समाज में अपराध भी बढ़े और दण्ड का भी विकास हुआ। वर्तमान में ही नहीं, अतीत में भी भयंकर दण्डों का विकास हुआ। स्मृतिग्रंथ भयंकर दण्डों के विधान से भरे पड़े हैं। उस युग में तरल गर्म शीशा कान में डालते, हाथ काट देते, आंख फोड़ देते, नाक काट देते। मनुष्य ने ऐसे भयंकर दण्डों का विधान और प्रयोग किया। आश्चर्य इस बात का है जितना ध्यान दंड के विकास में गया उतना अपराध के मूल कारणों पर क्यों नहीं गया? आज भी यह प्रश्न प्रस्तुत है और पहले भी शायद यह प्रश्न पूछा गया होगा। इस प्रश्न का उत्तर अतीत में खोजा गया, ऐसा प्रतीत नहीं होता। आज भी इस ओर ध्यान केन्द्रित नहीं है। कौन चौर : कौन साहूकार?
___ अपराध होने के बाद दण्ड का प्रयोग किया जाता है किन्तु अपराध के कारणों को मिटाने का प्रयत्न नहीं है। चोरी करने के बाद व्यक्ति को दण्डित किया जाता है किन्तु कोई चोरी न करे, यह बात नहीं सोची जा रही है। एक अवधारणा है-चोरी करने वाला अपराधी है। क्या बहुत संग्रह करने वाला अपराधी नहीं है? अगर गहराई से सोचा जाए तो निष्कर्ष होगा-अधिक संग्रह करने वाला समाज का बड़ा अपराधी है। भारी संग्रह करने वाला, हजारों जगह गढा बनाकर घर में एक पहाड खडा करने वाला अपराधी क्यों नहीं होता? वह बहुत बड़ा अपराधी है किन्तु उसे अपराधी नहीं माना जाता। जिस व्यक्ति ने थोड़ा-सा धन चुरा लिया, उसे अपराधी मान लिया गया किन्तु अधिक संग्रह करने वाले को बिल्कुल अपराध मुक्त माना गया, साहूकार माना गया। नाम ही दो बन गए-चोर और साहूकार। यह सारा कानूनी प्रपंच के कारण हुआ। अगर नैतिक चेतना का विकास होता तो यह स्थिति कभी नहीं बनती। कानून की भाषा में चाहे जितने प्रपंच रचे जाएं पर वह चोरी नहीं है, साहूकारी है और कानून की भाषा में जहां भी थोड़ा-सा बदलाव आता है, व्यक्ति एक क्षण में चोर बन जाता है। यह एक विडंबना है। समाज-विज्ञान की समस्या
___ अध्यात्म के बिना नैतिकता फलित नहीं होती और नैतिक कर्त्तव्य के बिना कोरा कानून और दण्ड समाज को कभी स्वस्थ नहीं बना सकता। स्वस्थ समाज की रचना के लिए कानून से परे जाकर नैतिक कर्तव्य पर ध्यान केन्द्रित करना अपेक्षित है। जब तक मनुष्य का ध्यान नैतिक कर्तव्य पर केन्द्रित नहीं है तब तक समाज नीरोग बन सके, स्वस्थ बन सके, यह संभव नहीं है।
__बहुत बार समाज के बारे में सोचा जाता है, समाज व्यवस्था के बारे में सोचा जाता है किन्तु सारा चिंतन राजनैतिक प्रणाली तक अटक जाता है। इन पांच-सात दशकों में समाज के बारे में जितना चिंतन हुआ है, उससे पहले शायद उतना नहीं हुआ। पुराने जमाने का चिंतन धर्म के बारे में ज्यादा था। समाज के चिंतन को भी धर्म का रूप दे दिया गया। हिन्दुस्तान में एक काल स्मृतियों का काल रहा है। उस समय मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य-स्मृति आदि-आदि स्मृतियां लिखी
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