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आत्मना युद्धस्व
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हमारे दो जगत् हैं-भीतरी जगत् और बाह्य जगत्। जिन लोगों ने भीतरी जगत् का साक्षात्कार नहीं किया है, वे बाहर में लड़ेंगे, युद्ध भूमि में लड़ेंगे, दूसरों से लड़ेंगे, शस्त्रों के द्वारा लड़ेंगे। जब बाह्य जगत् का
आंतरिकीकरण हो जाता है, बाह्य स्थितियों का भीतर में स्थानांतरण हो जाता है, तब भी युद्ध चलता है किन्तु रणभूमि में नहीं, अपनी चेतना की भूमि पर लड़ा जाता है। किसी दूसरे से नहीं किन्तु अपनी ही दुर्बलताओं से लड़ा जाता है। वह युद्ध बाह्य शस्त्रों से नहीं, अपने ही शस्त्रों से लड़ा जाता है, जागरूकता और अप्रमाद से लड़ा जाता है। आंतरिकीकरण में युद्ध का साधन बदल जाएगा, स्थल बदल जाएगा, प्रकार बदल जाएगा किंतु युद्ध का होना अनिवार्य है। दुर्लभ है युद्ध का क्षण
महावीर ने कहा-जुद्धारिहं खलु दुल्लहं-युद्ध का क्षण दुर्लभ है। कोई-कोई क्षण ऐसा होता है, जो युद्ध का क्षण होता है। किसी भाग्यशाली को ही युद्ध का क्षण उपलब्ध होता है। महावीर जैसे अहिंसा के प्रवक्ता हैं, वैसे ही युद्ध के प्रवक्ता भी हैं। ब्राह्मण ने नमि राजर्षि से कहा-राजन्! अनेक राजाओं की आपके राज्य पर नजर टिकी हुई है। आप राज्य छोड़कर चले जाएंगे तो पीछे क्या होगा? आप मुनि बनने से पहले एक काम करें, जो राजा आपके सामने नत नहीं होते हैं, उन सब राजाओं को अपने अधीन बना लें, उन पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लें, उसके बाद संन्यासी बन जाएं
जे केई पत्थिवा तुब्भं, नानमंति नराहिवा।
वसे ते ठावइत्ताणं, तओ गच्छसि खत्तिया! नमि राजर्षि ने उत्तर दिया-जिसको वश में करना चाहिए, उसको वश में नहीं किया जा रहा है। मैं युद्धभूमि में लड़े जाने वाले युद्ध में विश्वास नहीं करता। इस बाहरी युद्ध से अधिक महत्वपूर्ण है अपनी आत्मा से युद्ध करना
जो सहस्सं सहस्साणं संगामे दुज्जए जिणे। एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ।। अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ?
अप्पाणमेव अप्पाणं, जइत्ता सुहमेहए।।। जो पुरुष दुर्जेय संग्राम में दस लाख लोगों को जीतता है, उसकी अपेक्षा वह एक अपनी आत्मा को जीतता है, वह उसकी परम विजय है।
आत्मा के साथ ही युद्ध कर। बाहरी युद्ध से क्या होगा? आत्मा के द्वारा आत्मा को जीतकर ही मनुष्य सुख पाता है। युद्ध के बाद सुख नहीं, दुःख बढ़ता है
जो युद्ध समर भूमि में लड़ा जाता है, उसमें व्यक्ति दूसरों के जीवन के साथ खेलता है। उसमें हारने वाला तो हारता ही है, जीतने वाला भी हार जाता है। उस युद्ध से व्यक्ति स्वयं दुःखी बनता है और सारे संसार को दुःखी बना देता है। दूसरे महायुद्ध से पहले अधिक महंगाई नहीं थी, कठिनाई नहीं थी, द्वितीय महायुद्ध के बाद लोगों की कठिनाइयां बढ़ गई, वस्तुओं के भाव एकाएक
बढ़ गए। महायुद्ध के बाद सारी स्थितियां बदल गई, जीवन-निर्वाह दूभर होता Jain Education International
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