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महावीर का पुनर्जन्म
हैं.--अशाश्वत में विश्वास करने वाले और शाश्वत में विश्वास करने वाले। व्यक्ति में दोनों प्रकार की रुचियां होती है, दोनों प्रकार का आकर्षण होता है।
सन् १९८७ में ग्रीनपार्क, दिल्ली में शिविर चल रहा था। समण वीरप्रज्ञ (वर्तमान में मुनि कुमारश्रमण) जो उस वक्त सात वष का था, एक दिन बोला-मुझे वह उपाय बतलाइए, जिससे मेरी मुक्ति जल्दी हो। मैंने सोचा-यह अदम्य आकांक्षा है, जो कुछ लोगों में जन्मगत, संस्कारगत होती है। कुछ लोगों में यह भावना कभी नहीं जागती। इसीलिए अवस्था कोई प्रमाण नहीं है, व्यक्तित्व को नापने की कोई कसौटी नहीं है। जब भीतर का संस्कार जागता है, आत्मा जाग जाती है, निर्वाण की आकांक्षा उभर आती है। 'जब जागे तभी सवेरा' उसके लिए कोई निश्चित समय या अवस्था नहीं है। यह आश्चर्य की बात है-भृगु परम्परा भी यही रही है। शाश्वत का दीप जले
जिन व्यक्तियों में शाश्वत की प्रज्ञा जाग जाती है, वे अशाश्वत की कामना कभी नहीं करते और जिनकी बुद्धि अशाश्वत में प्रलुब्ध है, वे शाश्वत को जान नहीं सकते
शाश्वते लब्धबद्धीनां, नो काम्यः स्यादशाश्वतः।
अशाश्वते प्रलुब्धो यः, स किं जानाति शाश्वतम्? अध्यात्म की पूरी परम्परा शाश्वत की परम्परा है। अशाश्वत में जिसका मन उलझा हुआ है, वह कभी अध्यात्म के मार्ग में नहीं आ सकता। आ जाए तो रह नहीं सकता। उसका ध्यान पदार्थ में उलझा रहता है। वह पदार्थों को ही देखता है। जब तक व्यक्ति के भीतर शाश्वत का दीप प्रज्वलित नहीं होता तब तक प्रेक्षा की बात समझ में नहीं आती। यदि लक्ष्य आंतरिक बन जाए और आंख खुली रहे तो व्यक्ति को कुछ भी दिखाई नहीं देगा। पांचों इन्द्रियों का इस क्रम में विकास किया जा सकता है। कांच में भी देखें तो अपने आपको देखें। भरत को केवलज्ञान कैसे हुआ? उन्होंने प्रेक्षा की, अपने आपको देखने का प्रयोग किया। कांच देखते-देखते अपने भीतर देखना आरम्भ कर दिया, कैवल्य प्राप्त हो गया।
_अपने शरीर के भीतर जो बैठा है, व्यक्ति उसे देखना नहीं जानता। वह शरीर को देखना जानता है, मकान को देखना जानता है पर उसके भीतर जो बैठा है उसे देखना नहीं जानता। बड़े को देख लेता है पर उसके भीतर क्या है, उसे वह नहीं जानता। प्रेक्षा की चेतना तब जागती है, जब अशाश्वत की लौ बुझ जाती है, शाश्वत की लौ जग जाती है। शाश्वत की भावना जगे बिना न कोई सम्यक्दर्शी बन सकता, न कोई श्रावक, व्रती या मुनि बन सकता और न कोई प्रेक्षाध्यान का साधक बन सकता। अनिवार्य शर्त है-भीतर की चेतना जागे, भीतर के साथ सम्बन्ध स्थापित हो। एक भेदरेखा खिंच जाए-यह शाश्वत है और यह अशाश्वत है। अशाश्वत में रहना पड़ रहा है किन्तु वह गंतव्य नहीं है, उद्देश्य नहीं है। शाश्वत तक जाना है, शाश्वत में रमण करना है। आत्मरमण का
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