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महावीर का पुनर्जन्म
मेरी गति-इस प्रवाह में मत जाओ, इन्द्रियों के साथ मत चलो, अकेला चलने का सूत्र खोजो। सबके साथ चलते हुए अकेले चलते चलो। आचार्य भिक्षु ने मार्मिक शब्दों में कहा-गण में रहूं निरदाव अकेलो-समूह के बीच रहता हुआ भी व्यक्ति अकेला रहे, 'एकला चलो' इस चिन्तनधारा को मानकर चले, 'सबकी गति : मेरी गति' इन्द्रिय की धारा में पनपने वाले इस चिन्तन से परे रहे। उसे अपना स्वतन्त्र और मौलिक चिन्तन करना है, भीड़ का साथी नहीं होना है, भीड़ से अलग रहकर अपने स्वतन्त्र अस्तित्व और व्यक्तित्व को बनाए रखना है।
जैन दर्शन अतीन्द्रिय चेतना में विश्वास करने वाले दर्शनों में अगुआ दर्शन रहा है। उसमें अकेला चलने का विधान है-यह भी तुम करो, वह भी तुम करो। किसी की प्रतीक्षा मत करो, किसी की ओर मत देखो, अपने पुरुषार्थ पर भरोसा कर चल पड़ो। यह अकेला चलने की बात, अतीन्द्रिय चेतना की बात व्यक्ति के अन्तर्मानस में उतर जाए तो जीवन की धारा, चिन्तन की प्रणाली बदल जाए, शांति का मार्ग बहुत प्रशस्त बन जाए।
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