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कुछ लोगों को यह भ्रांति होती है कि महावीर और बुद्ध ने वर्णव्यवस्था को तोड़ने का यत्न किया ऐसा नहीं है, उन्होंने तो उसको केवल सुधारने काही काम किया है। महाभारत में पुनः पुनः स्पष्ट शब्दों में वही बात कही है, जो महावीर ने कही है।
न योनिर्नापि संस्कारो, न श्रुतं न च संततिः ;
कारणानि द्विजत्वस्य; वृत्तमेव तु कारणम् । न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्राह्मणमिदं जगत्; ब्रह्मणा पूर्वसृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम् ।
महावीर ने और बुद्ध ने, दोनों ने “कर्मणा वर्ण: " के सिद्धान्त पर ही ज़ोर दिया । यही सिद्धान्त उत्तम वर्ण-व्यवस्था का मूल मंत्र है; इसके न मानने से इसके स्थान पर "जन्मना वर्ण: " के अपसिद्धान्त की स्थापना कर देने से ही, भारतीय जनता की वर्तमान घोर दुर्दशा हो रही है ।
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यह खेद का स्थान है कि जैन सम्प्रदाय मैं भी व्यवहारतः जिनोपदिष्ट सिद्धान्त का पालन नहीं होता; प्रत्युत उसके विरोधी अप - सिद्धान्त का अनुसरण हो रहा है । मैं आशा करता हूँ कि "महावीर वाणी" के द्वारा जैन सम्प्रदाय का ध्यान इस और आकृष्ट होगा और सम्प्रदाय के माननीय विद्वान् यति जन इस महावीर के समाज और गार्हस्थ्य के परमोपयोगी उपदेश, आदेश का जीर्णोद्धार अपने अनुयायियों के व्यवहार में करावेंगे ।
अन्त में इतना ही कहना है कि मैं प्रकृत्या, समन्वयवादी, सम्वादी, सादृश्यदर्शी, ऐक्यदर्शी हूँ; विरोधदर्शी, विवादी, वैदृश्यान्वेषी, भेदावलोकी नहीं हूँ। मेरा यही विश्वास है कि सभी लोकहितेच्छु महापुरुषों ने उन्हीं सत्यो, तथ्यों, कल्याण मार्गों का उपदेश किया है, जीवन के पूर्वार्ध में लोक - यात्रा के साधन के लिये और परार्ध में परार्थ- मोक्ष- निर्वाण निःश्रेयस
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